Friday, April 3, 2015

अब सवाल सिर्फ मात्रा का,किस्म का नहीं !

 अभी कोई ज़्यादा समय नहीं गुज़रा है जब हम भारतवासियों में "विदेशी" को लेकर ज़बरदस्त क्रेज़ था। हम हर बात में अपने को उनसे कमतर आंकते थे।  एक हीनभावना हमारी जड़ों में गहरे तक पैठी हुई थी। हम उनके हर माल, हर अदा, हर जलवे और हर जादू को ललचाई नज़रों से देखते थे। और हकीकत ये है, कि हम केवल ऐसा सोचते ही नहीं थे, बल्कि कई मामलों में ऐसा था ही।
हमारे कुछ दूरदर्शी नेताओं ने हमारी इस बेचारगी को भांपा।  इनमें केवल राजनैतिक नेता ही नहीं, सामाजिक,आर्थिक, वैज्ञानिक सोच वाले नेता भी शामिल थे।  इन सबके प्रयासों से एक मुहिम छिड़ी, और हर बात में विदेशी नक़ल, विदेश की बराबरी,विश्वस्तर से होड़ का सिलसिला शुरू हो गया।
नतीजा ये हुआ कि हमारा हर काम,सौ में से एक,उनके बराबर होने लगा।  सौ में से एक डॉक्टर,सौ में से एक इंजीनियर,सौ में से एक अर्थशास्त्री, सौ में से एक शिक्षक, सौ में से एक वकील,सौ में से एक व्यापारी विश्व-स्तरीय हो गया।
इस बात से इतना लाभ तो ज़रूर हुआ कि हमलोग हर बाहरी चीज़ को ही सब कुछ समझने की अपनी मानसिकता से उबरने लगे। लेकिन फ़िलहाल इसका एक नुकसान भी होता दिख रहा है।अब हम बाहर की किसी भी चीज़ को देखते ही तुरंत उसके मुकाबले पर उतर आते हैं और अपनी "सौ में एक"उपलब्धि को उसके समकक्ष रख कर झूमने लगते हैं। हम भूल जाते हैं कि जो सुविधा वे अपने "सब" लोगों को दे रहे हैं वही हम केवल सौ में एक भारतीय को दे पाते हैं।  इस तरह अभी हमें बहुत काम करना है, चाहे वह किस्म का नहीं, बेशक मात्रा का ही हो।  और किस्म में भी अभी गुंजाइश है।   
           

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