Monday, June 2, 2014

बेस्वाद मांस का टुकड़ा

मांस का बेस्वाद टुकड़ा, खाली हाथ वाली अम्मा, अखिलेश्वर बाबू, ये नाम उन्होंने रख दिया था, अम्मा, आखेट, आदि मेरी उन कहानियों के शीर्षक हैं जो १९८५ में छपी थीं।  "मांस का बेस्वाद टुकड़ा" एक उपन्यासिका है, जिसे कुछ अन्य कहानियों के साथ "बेस्वाद मांस का टुकड़ा" शीर्षक किताब में छापा गया।
मुझसे आज भी कोई-कोई ये पूछ लेता है कि बेस्वाद मांस और बेस्वाद टुकड़े में फर्क क्या है?
उत्तर में मैं कहता हूँ कि यदि कोई फाइवस्टार शेफ़ ख़ास मेहमानों के लिए कोई लज़ीज़ डिश तैयार कर रहा होगा तो वह पहली प्लेट पूरी फेंक देगा, किन्तु दूसरी प्लेट में से सिर्फ़ एक टुकड़ा ही फेंकेगा।
मुझे ख़ुशी है कि कई लोग इस एकेडमिक एक्सप्लेनेशन से संतुष्ट भी हो जाते हैं।  कुछ शाकाहारी किस्म के लोग समूचे विवाद को ही तिरस्कार से देखते हैं।  कुछ लज़ीज़ खाने के शौक़ीन लोग हर विवाद में मेरे साथ होते हैं। उन्हें दोनों स्थितियाँ मंज़ूर होती हैं।
कुछ ऐसे लोग भी होते हैं, जिन्होंने जीवन में कभी न कभी "मधुशाला" पढ़ी होती है और वे जानते हैं कि इसके कवि हरिवंशराय बच्चन मदिरापान नहीं करते थे। कुछ लोग जानते हैं कि बॉम्बे का नाम मुंबई हो जाने के बाद भी ख्वाज़ा अहमद अब्बास की "बम्बई रात की बाँहों में" का नाम बदला नहीं है।   
मुझे याद आया, छुट्टियाँ चल रही हैं, और इन दिनों कुछ बच्चे भी इस ब्लॉग पर आते हैं। बच्चो,गली में दोस्तों के साथ क्रिकेट खेलते हुए तुमने देखा होगा कि एक आदमी साइकिल पर "चक्कू -छुरियाँ तेज़ करालो" की आवाज़ लगता हुआ गली-गली घूमा करता है।  गृहणियाँ पुराने चाक़ू-छुरी, जो काटते-काटते भौंथरे हो जाते हैं, उस आदमी के पास ले आती हैं, और वह उन्हें घिस कर फिर से पैना कर देता है।  लिखने वाले भी अपनी भौंथरी कलम इसी तरह पैनाया करते हैं।              

No comments:

Post a Comment

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

Lokpriy ...