Saturday, April 19, 2014

ये कैसी कहानी , इस से तो चुनाव की बात ही अच्छी

एक विशालकाय जहाज समंदर में डूब रहा था. जहाज के वाशिंदे अपनी-अपनी हैसियत- भर चिल्ल-पौं मचाये हुए थे.विशाल लहरों पर किसी बजरे की तरह डबडबाते मायावी सफ़ीने की नियति भाँप किनारे के पंछी-पखेरू भी छाती पीटते थकते न थे. कुछ आभासी कलंदर जहाज से नीचे झांकते, और स्वतः ही बड़बड़ा उठते- " नहीं, नहीं, ये लहरें नहीं, हो ही नहीं सकतीं. लहरें तो वे थीं, जब हमारे सफ़र का आगाज़ हुआ था. अंजाम पे भला कैसी लहरें ? किसकी लहरें ?
जहाज पर मंडराते परिंदों ने कभी न कभी जहाज के भीतर चुगते हुए उसका नमक खाया था.सो उनका दिल गवाही नहीं देता था कि रोएँ ना.लिहाज़ा बिलख रहे थे.
उधर दूसरे किनारे पर दूसरा जहाज लंगर खोल कर समंदर का इस्तक़बाल कर रहा था. उसके मस्तूल पर फहराती पताकाओं की शोखी कहती थी कि  बात दूर तलक जाएगी. तेज़ी से झूमती तूफ़ानी लहरें उम्मीद के पलाश बिखराती थीं. सामने दिखाई देता ये बावरा अब डूबे, तब डूबे कि समंदर खाली हो. बहुत रौंदा इसने चारों दिशाओं की मछलियों को.अब दोजख में अपनी ठौर तलाशे.
एक तीसरी नौका भी थी.कभी इधर पछाटें खाती तो कभी उधर कुलांचें भरती. खुद अपने से बेज़ार, अपने ग़म से बेज़ार। न जानती कि  कहाँ जाना है, न पहचानती कि  क्या करना है.कभी अपनी पतवारों से पीट-पीट कर खुद को ज़ख़्मी कर लेती तो कभी बिना पानी के किनारे पर डूब मरती.
अब कहानी का कोई अंत हो तो पता चले, पुराने दरख्तों का पतझड़ हो ले, नए बिरवों की कोपलें फूट लें तो कुछ पता चले. आएंगे-जाएंगे तो जहाज ही, समंदर कहाँ भागा जाता है ? थोड़ी देर और ठहर !                                

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