Thursday, January 30, 2014

अगर आशा पारेख और शर्मिला टैगोर कवयित्री होतीं

 कवियों के घर वाले चाहे उनका जो भाव लगा कर उन्हें कोसें, हकीकत ये है, कि कवि होने के चंद फायदे भी हैं. कवियों को अपना भाव बढ़ाना खूब आता है. आपने किसी भी कवि सम्मलेन में किसी भी कवि को कभी यह कहते नहीं सुना होगा-"पहले मैं". हमेशा हर कवि की यही कोशिश होती है कि "पहले दूसरा". और इसी के चलते यह सर्वमान्य परंपरा बन गई कि जो सबसे बाद में कविता पढ़े, वही सबसे बड़ा कवि. 
लेकिन आशा पारेख और शर्मिला टैगोर कोई कवयित्री तो हैं नहीं, लिहाज़ा उन्होंने गीत-संगीत के कई टीवी चैनलों पर "पहले मैं" ही नहीं, बल्कि कहीं-कहीं तो "केवल मैं" का रास्ता अख्तियार कर लिया। वे आसानी से ऐसा कर भी सकीं क्योंकि दोनों ने ही फ़िल्म सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष पद को सुशोभित किया था.
नतीजा यह हुआ कि दर्शक उनसे कन्नी काटने लगे.कितना भी महान कलाकार हो, आखिर रामधुन की  तरह चौबीस घंटे कौन उसकी सुने?
हाथ कंगन को आरसी क्या !
इंडिया टुडे ने जब शताब्दी की सबसे बेहतर अदाकारा के चयन के लिए सर्वे शुरू किया तो अपनी अन्य समकालीन अभिनेत्रियों की  तुलना में इन दोनों का बाज़ार बेहद ठंडा रहा.यही नहीं, बल्कि इनकी दुकानदारी का आलम यह है कि इन्हें दर्शकों से जितने "लाइक्स"मिलते हैं, उनसे कहीं ज्यादा "डिसलाइक्स".शायद इस उदासीनता का कारण यही है कि दर्शक हर रोज़ इनके गीतों के कठपुतली नाच से ऊब गए हैं.         

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