Monday, December 10, 2012

मकड़ी और कस्तूरी

गाँव वालों ने अपने बच्चों का भविष्य बनाने के लिए गाँव में एक स्कूल खोल लिया। कहीं से एक युवक और एक युवती को बुला कर उन्हें शिक्षक भी बना दिया गया ।बच्चे आये, विद्यालय चल पड़ा।
युवती को जो कुछ आता था, वह बच्चों को सिखा देती।धीरे-धीरे उसने अपना सारा ज्ञान बच्चों को दे डाला। अब बच्चे सोचते, जो इन्हें आता है, वह हमें भी आता है, तो इनमें और हम में अब फर्क ही क्या है? धीरे-धीरे शिक्षिका और बच्चों के बीच मित्र जैसा व्यवहार होने लगा, और वे आदर-भाव छोड़ कर हम-उम्र दोस्तों की तरह बात करने लगे।
उधर युवक बच्चों से दूरी बना कर रखता। वह बच्चों को आसानी से ऐसा कोई ज्ञान न देता, जो वह जानता था। बच्चे उस से संकोच से मिलते, और उनके बीच धीरे-धीरे इतना अंतर आ गया, कि  बच्चे अपने को अज्ञानी और शिक्षक को परम ज्ञानी समझने लगे। वे शिक्षक को कई-कई बार प्रणाम करते।
कुछ दिन बाद युवती का विवाह तय हो जाने से उसने विद्यालय छोड़ कर जाना चाहा।  उसने जाते-जाते बच्चों से कहा- "शिक्षा कस्तूरी-गंध की तरह होती है, जो शिक्षक से उड़ कर तुम तक आ जाती है। मेरे जाने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा,तुम्हें जब भी मेरी ज़रुरत हो, आ जाना, मैं तुम्हें पढ़ा दूंगी।"
बच्चों ने अपनी टीचर को भरी आँखों से विदाई दी, और वह चली गईं।
अब युवक अकेला ही वहां रह गया। उसने वर्षों तक वहां काम किया।
वृद्ध हो जाने के बाद, जब उसने विद्यालय छोड़ कर जाना चाहा,तब भी वह न जा सका। क्योंकि ऐसा कोई दूसरा नहीं था, जो उसकी जगह काम कर सके। उसने शायद किसी को भी इतना ज्ञान नहीं दिया, जो उसका स्थान ले सके। अतः गाँव वालों ने उसे जाने नहीं दिया। उसे लगता, उसने किसी मकड़ी की भांति अपने चारों ओर  ऐसा जाला बुन लिया है, जिस में जकड कर, अब वह कहीं जा नहीं सकता।गाँव वालों के लिए शिक्षा की ज़रुरत भी तो लगातार बनी हुई थी। उनमें से कोई अब तक कुछ न सीखा था।
 

2 comments:

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

Lokpriy ...