Tuesday, November 6, 2012

बौरा गए थे देख कर,जिनकी ख़ुशी को हम, उनके ग़मों को देख कर,पगला गए हैं अब

किसी ने कहा है कि  आदमी को न तो ख़ुशी में आपा खोना चाहिए, और न ही दुःख में धैर्य खोना चाहिए। पर उनका क्या हो, जो सुख-दुःख दोनों में उतावले हो जाते हैं? यद्यपि इस मुद्दे पर भी सब एकमत नहीं हो सकते। कुछ लोगों की धारणा  यह होती है कि  हमें संवेदनशील होना ही चाहिए, हम प्रसन्न भी हों, विचलित भी, उल्लसित भी, तो उदासीन भी। वहीँ कुछ लोगों का मानना यह होता है कि  भावनाओं पर नियंत्रण करना ही मनुष्य की सफलता है।
इस विवाद में गहराई से उतरने का परिणाम यह होता है कि  हम आदमी को दो भागों में बाँट देते हैं। हमें वह देव और दानव के रूप में दिखने लगता है। इन्हीं दोनों का औसत निकालकर हम "मानव" को तलाश कर लेते हैं। किसी- किसी को यह अचम्भा भी होता है, कि इस में दानवता कहाँ से आ गयी? पर इसमें दानवता है!
चौंकिए मत, दानवता उसी स्वभाव में है, जिसे हम 'संत-स्वभाव' कहते हैं । सुख और दुःख दोनों से निरपेक्ष रहना वस्तुतः दानवता ही है। मनुष्य जटिल अनुभवों से गुजर कर ही ऐसा बनता है।
किसी ऐसे घर में जाइए, जहाँ ख़ुशी का कोई कारण हो।पर आप खुश मत होइए। देखिये, सभी देखने वालों को आपके स्वभाव में कुटिलता, ईर्ष्या या नकारात्मकता दिखेगी। यह सभी दानवीय गुण हैं।
ऐसा ही दुःख के बारे में पाएंगे।   

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