Sunday, November 4, 2012

वो जा रहा है ...क्योंकि वो आया था

आजकल चाइना की चर्चा है। हलके में ले रहे हैं लोग। लतीफे आते हैं, चाइना मैन्युफेक्चरिंग और ट्रेडिंग कांसेप्ट्स पर। "चाइना का माल" माने वो दांत, जो रोटी चबाते में निकल कर भाग सकते हैं। कुछ समय पहले तक जिन चीज़ों की नवीनता पर ग्राहक बाज़ार लट्टू था, वही अब गले की हड्डी बनी हुई हैं, न निगलते बनती हैं, न उगलते। "मेड इन चाइना" का ठप्पा अब लोगों को लुभाता नहीं, बल्कि शंकित करता है। लोग दुकानदारों से पूछते हैं कि  'यह एक्सपायरी डेट से कितना पहले एक्सपायर होगी', यदि वस्तु चाइना में निर्मित है।
लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है कि  जो आर्थिक शक्ति कुछ समय पहले तक बाज़ार-भोज कर रही थी, वह अब ग्राहकों के ताने निगलने को मजबूर है?
ताली एक हाथ से नहीं बजती। इसीलिए यह कहा जा सकता है कि इस ताली की आवाज़ के पीछे भी दो हाथ हैं।
एक तो यही बात है कि  एक बादल जो घूम कर उठा था और देखते-देखते आसमान पर छा गया था,उसे छटना ही था, क्योंकि चाँद किसी एक आगोश में हमेशा नहीं रह सकता। वो आया था, इसलिए वह जाता भी दिख रहा है। उफनते दूध और उमड़ते ज्वार को उतरना ही होता है। आसमान कितना भी अनंत हो, सूरज के क्षितिज तय हैं। उसे आना भी है, जाना भी। न तो तकनीक को हमेशा नया रखा जा सकता है और न ही मांग की पतंग हमेशा उड़ती है।
दूसरे,विकासशील देशों की अपनी नीयत में भी कोई कम खोट नहीं होती। वहां सब कुछ समानांतर चलता है, पूँजी बाज़ार भी, और प्रौद्योगिकी भी।बाहर से उम्दा किस्म की एक वस्तु आती है तो उसके चार नकली संस्करण बनते देर नहीं लगती। और अगर वस्तु विदेशी है, तो स्थानीय सरकार और मीडिया भी नक़ल करने वालों से मिली-भगत करने में गुरेज़ नहीं करते।
नतीजा यह होता है कि  जैसे "काम तुम्हारा दाम हमारा" से आगाज़ होता है, वैसे ही "नाम तुम्हारा काम हमारा" से अंत होता है। तो हम बेशक चाइना पर अंगुली उठा लें, किन्तु शेष तीन अँगुलियों को अपनी ओर आने से  नहीं रोक सकते।        

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