Wednesday, October 17, 2012

अच्छे दिन

जब अच्छे दिन आते हैं तो अपने आप सब अच्छा-अच्छा होता है। मर-खप चुके पूर्वजों की याद से हम उबर जाते हैं। नई  रातें शुरू हो जाती हैं। गली-कूंचों के मेहनत-कश कारीगर बांस की खपच्चियों का अस्थि-पंजर बना कर रंगीन कागजों से उसे रावण रूप देने लगते हैं। इस प्रत्याशा में वे श्रम का निवेश और आस की बुवाई करते हैं कि अब समय का राम आये, और इनका वध करे।अच्छे दिनों के उजास में उनकी भी रोटी निकले।
गली-गली बारूद से फुलझड़ी और पटाखे बनने लगते हैं कि  खुशियों का आगाज़ और इस्तकबाल आवाज़ से हो। गुलाबी ठण्ड मंच पर आने को नया जोड़ा पहनने लगती है।
घरों के कौनों-कंदराओं में रेंगते बिलबिलाते कीट-पतंगे अपने दिन गिनने लगते हैं, ताकि बुरी-आत्माओं के ये प्रतीक बुहार कर दूर किये जा सकें। इनके अंडे-भ्रूणों का फूटना अच्छे आगत की रणभेरी बजाता है।
बड़ी कुर्सियों पर बैठे ऊंचे लोग प्रजा को सौगात, ईनाम, इकराम बांटते हैं। वे मोटे और गाढे लिबास पहनने लगते हैं, ताकि उनके  ज़मीर पर उजाला न गिरे। क्योंकि कोई भी मौसम आखिरी थोड़े ही होता है, पुराने दिनों को आखिर फिर लौटना तो होता ही है। ज़मीर को कौन रंगरेज़ बार-बार रंगने की ज़हमत उठाये!
 

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