Thursday, September 13, 2012

पता नहीं चलता कि पहले ठीक थे या अब सही हैं ?

   मुझे अच्छी तरह याद है, कुछ साल पहले तक जब चौदह सितम्बर आता था तो मन में जोर-शोर से यह बात आती थी कि  आज हिंदी दिवस है। इस दिन तरह-तरह के कार्यक्रमों में भाग लेकर हम लोगों को हिंदी भाषा अपनाने के लिए प्रेरित किया करते थे।
   लेकिन आज सोचने पर मुझे ऐसा लगता है कि  इसकी कोई ज़रुरत न तो थी, और न ही है। क्योंकि हिंदी भाषा भारत में तो लोगों ने अपनाई हुई है ही, देश के बाहर भी कई जगहों पर लोग इसका इस्तेमाल करते हैं। और जो लोग इसका प्रयोग नहीं करते, या इसे नहीं अपनाते, उनसे क्यों कहा जाये कि  वे इसे अपनाएं ?सैंकड़ों भाषाएँ हैं, लोग अपनी पसंद और सुविधा से अपनी मनपसंद भाषा को अपनाएँ। कोई किसी के कहने से कोई भी ज़बान क्यों बोले ? और कोई दूसरा उनसे क्यों कहे कि  वे अमुक भाषा बोलें।
    हम जब प्रचारक बन कर किसी एक भाषा के प्रयोग के लिए लोगों को उकसाते हैं, तो हम जितने लोगों को उस भाषा के नज़दीक ला पाने में समर्थ होते हैं, उस से कहीं ज्यादा लोगों को हम उस भाषा से दूर कर देते हैं। क्योंकि लोग उस भाषा को शंका से देखते हुए यह सोचने लगते हैं, कि  शायद इसके प्रचारक अपने किसी निजी स्वार्थ के लिए दूसरों पर अपनी भाषा थोपना चाहते हैं।
    फिर यदि किसी के कहने-उकसाने पर कुछ लोग उस भाषा से जुड़ भी जाएँ तो इस से उस भाषा की श्रेष्ठता कहाँ सिद्ध हुई ?   

3 comments:

  1. Dhanywad!Par yah "satya"thoda sa kadwa bhi hai.

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  2. जी बहुत सही कहा आपने |
    भाषा किसी कारखाने में पैदा नही होती,यह तो बोलचाल और लोक व्यवहार से बनती है |आज भले ही प्रचलन में हिन्दी ना चली हों,पर साहित्य और संस्कृति की दुनिया में हिन्दी बड़ी सरलता और सहजता से स्थान ग्रहण करती आई है और आगे भी करती रहेगी |

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