Sunday, June 17, 2012

मौसम सजने का

     जिस तरह अपने समय पर बागों में फूल आते हैं, पर्वतों पर बर्फ की चादर आती है, उसी तरह देश के मस्तक पर किसी मुकुट की तरह एक 'राष्ट्रपति' आता है। वही मौसम है आजकल।
     जिस तरह पौधा रोपे जाते समय माली का दिल हिलोरें लेता है,ठीक उसी तरह राष्ट्रपति नामित करने में सक्षम लोग अपनी क्षमता के उन्माद में हिलोरें लेते हैं। हर कोई अपना उम्मीदवार इस तरह घोषित करता है, मानो मंडी में खड़ा  होकर अपनी-अपनी पसंद की सब्जी चुन रहा हो। दस बीस मवेशियों के गडरिये भी जंगल का "अपना" राजा  बड़ी शान से घोषित करते हैं।
     चुने गए गुलदस्ते में सब तरह के फूल हैं। ऐसे भी, जो खराब ऋतु में तेज़ी से महक कर फिजा बदलने की कुव्वत रखते हैं, ऐसे भी, जो जिंदगी भर भागते-भागते बेदम होकर अब  सुस्ताना चाहते हैं।ऐसे भी, जो आड़े वक्त में काम आये थे, और ऐसे भी, जिनके चलते आड़ा वक्त आया था।
     राष्ट्रपति भवन में शहनाइयाँ बजने लगी हैं। इन शहनाइयों की फितरत भी निराली है, ये एक ओर  जहाँ प्रस्थान करने वाले का विदागीत हैं, दूसरी ओर आने वाले का स्वागत-गीत भी। इतना ही नहीं, ये एक सौ बीस करोड़ लोगों के हुजूम के सामने तमाशे से पहले की डुगडुगी भी है। बहरहाल, ये एक 'महामहिम' के लिए बन्दनवार सजने का आलम भी है।        

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