Tuesday, May 22, 2012

उगते नहीं उजाले

  बच्चों  की  छुट्टियाँ  हो  गईं।  अब  कुछ  दिन  केवल  उनके  लिए ...

लाजो  आज सुबह  से ही  बहुत  उदास  थी।  उसका  मन  किसी  भी  काम  में  न  लग  रहा  था।  वह  चाहती  थी  कि   अपने    दिल की बात  किसी  न  किसी  को  बताये,  तो  उसका  बोझ  कुछ  हल्का  हो।  लाजो  लाजवंती  लोमड़ी  का  नाम  था।  
संयोग  से  थोड़ी  ही  देर  में  बख्तावर  खरगोश  उधर  आ  निकला।  वह  शायद  किसी  खेत  से  ताज़ी  गाज़र  तोड़  कर  लाया  था  जिसे  पास  के  तालाब  पर  धोने  जा  रहा  था।  
बख्तावर  के  बच्चे  बहुत  छोटे  थे।  वह  उन्हें  मिट्टी लगी  गाज़र  न  खिलाना  चाहता  था।  इसीलिए  जल्दी  में  था।  पर  लाजवंती  लोमड़ी  को  मुंह  लटकाए  बैठे  देखा,  तो  उससे  रहा  न  गया।  झटपट  पास  चला  आया,  और  बोला-  अरे  लाजो  बुआ,  ये  क्या  हाल  बना  रखा  है! तुम  इस  तरह  शांति  से  बैठी  भला  शोभा  देती  हो! क्या  तबीयत  खराब  है?  
लाजो  ने  बख्तावर  को  देखा  तो  झट  खिसक  कर  पास  आ  गई।  बोली,  तबीयत  खराब  क्यों  होगी।  पर  आज  जी  बड़ा  उचाट  है।  क्या  बताऊँ,  आज  सुबह-सुबह  मुझे  न  जाने  क्या  सूझी  कि   मैं  घूमती- घूमती  जंगल  से  बाहर  निकल  कर  पास  वाली  बस्ती  में  पहुँच  गई।  वहां  एक  पार्क  था।  लोग  सैर-सपाटा  कर  रहे  थे।  बच्चे  खेल  रहे  थे। सोचा,  मैं  भी  थोड़ी  देर  ताज़ी  हवा  खा  लूं।  मैं  एक  झाड़ी   की  ओट  में  छिपने  जाने  लगी  कि   तभी  मैंने  बच्चों  की  आवाज़  सुन  ली।  शायद  उन्होंने  मुझे  देख  लिया  था।  एक  बच्चा  बोला-  अरे,  अरे,  वो  देखो,  चालाक  लोमड़ी।  कहाँ  भागी  जा  रही  है।  तभी  दूसरा  बच्चा  बोला-  शायद  यहाँ  के  अंगूर  खट्टे  होंगे,  इसीलिए  जा  रही  है।  बस  भैया,  मेरा  पारा सातवें  आसमान  पर  पहुँच  गया।  अब  तुम्हीं  बताओ ,  भला  मैंने  क्या  चालाकी  की  थी  उन  बच्चों  के  साथ?  और  अंगूर  की  बात  यहाँ  बीच  में  कहाँ  से  आ  गई?  
बख्तावर  जोर-जोर  से  हंसने  लगा।  बोला-  अरे  बुआ,  तुम  तो  बड़ी  भोली  हो।  बच्चे  पंचतंत्र  के  ज़माने  से  ही   हमारी कहानियां  सुन-सुन  कर  हमें  जान  गए  हैं  न.  सो  जैसा  उन्होंने  सुना,  वैसा  कह  दिया।  [जारी]       

1 comment:

  1. खरगोशों की दुनिया में बेचारी भोली-भाली लोमड़ी सदा ऐसे ही सताई जाती है।

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