Sunday, April 15, 2012

सूखी धूप में भीगा रजतपट [ भाग 41 ]

     भीतर कुछ लोग इंतज़ार में थे. उन्हें एक सुसज्जित कक्ष में बैठाया गया था. उन्हें पीने के लिए कोई खुशबूदार स्वादिष्ट पेय दिया गया था. अपनी बारी के लिए टोकन भी दिया गया था. और आश्रम के लिए स्वेच्छा से 'कुछ' देने का अनुरोध भी प्रसारित किया गया था. किन्ज़ान अभिभूत होकर पेय का गिलास हाथ में पकड़े, वहां लगे सोफे पर बैठ गया.पेरिना को यह सब ऊब भरा लगा. वह आश्रम के चारों ओर की नैसर्गिक आभा को देखने की गरज से अहाते के पिछवाड़े की ओर चली आई.पीछे की ओर एक बड़े औषधीय बगीचे में लोग तरह-तरह के काम कर रहे थे.
     पेरिना ने एक वृद्ध महिला से बात करनी चाही, किन्तु वह 'हाँ' 'हूँ' के अलावा और कुछ न बोली. पेरिना मायूस होकर चार-दिवारी के पास, दूर तक चली गई, और अकेले ही टहलने लगी.भीतर की भीड़ देख आई पेरिना को अनुमान था कि किन्ज़ान का नंबर कई घंटों के बाद ही आ पायेगा.
     लेकिन पेरिना को यह देख कर अच्छा लगा कि वही वृद्ध महिला कुछ देर के बाद पेरिना की ओर आने लगी.कुछ ही देर में वह पेरिना से मुखातिब थी.
     महिला लगभग चालीस साल से उस आश्रम में काम कर रही थी और वहां की गतिविधियों के बारे में काफी कुछ जानती थी. महिला ने सबसे पहले तो पेरिना से इस बात के लिए क्षमा मांगी कि वह ड्यूटी पर रहते हुए उस से कोई बात नहीं कर सकी. वहां किसी से काम के वक्त बात करने पर सख्त पाबंदी थी. अब, ड्यूटी का समय ख़त्म होते ही महिला पेरिना के पास चली आई.
     महिला नार्वे के ओस्लो की रहने वाली थी. आश्रम की विश्वास-पात्र थी, और कई देशों की यात्रा कर चुकी थी. पेरिना को अपनी मित्र बनाने में उसे ज्यादा वक्त नहीं लगा, क्योंकि वह वाचाल भी थी. शायद आश्रम में जब-तब बोलने की पाबन्दी के कारण उसकी वाचालता को हवा मिली हो.
     कंकड़ों की तरह बजती आवाज़ में बहुत कुछ बताने के बीच महिला ने पेरिना को फुसफुसा कर भी कुछ बातें बताईं. और इसी से पेरिना को मालूम हुआ कि आश्रम के मुख्य संतजी भारत के नहीं, बल्कि म्यांमार के रहने वाले हैं.
     महिला की दी इस जानकारी ने तो पेरिना को चौंका ही दिया कि लगभग नब्भे साल पहले यह आश्रम बना था. तब भारत से एक कृशकाय वृद्ध व्यक्ति को लगभग बंदी बना कर ही यहाँ लाया गया था. लोग बताते थे कि भारत में पहाड़ी-कंदराओं में जाकर वर्षों तपस्या करके सिद्धियाँ प्राप्त करने की बहुत पुरानी परम्परा है.ऐसे तपस्वी न कुछ धनोपार्जन करते थे, और न ही अपनी सिद्धियों के एवज में किसी से कुछ लेते थे. उनके ज्ञान की बदौलत उन्हें ऐसे पूर्वानुमान हो जाते थे, जिन्हें लोग जानना चाहते थे.
     बाद में ऐसे लोगों को कुछ व्यापारिक बुद्धि के समर्थ लोग जबरन आश्रय प्रदान करके छिपे तौर पर अपने साथ रख लेते थे, और उनके चमत्कारिक ज्ञान  के बूते पर अपनी दुकान चलाते थे. भारतीय रजवाड़ों ने ऐसे तपस्वियों को सहारा देकर कई देशों में अपनी पैठ बनाई. पेरिना का मन हुआ कि यह महिला बोलते-बोलते रुके, तो जा कर किन्ज़ान को सचेत करदे...[जारी...]      

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