Saturday, March 31, 2012

सूखी धूप में भीगा रजतपट [भाग 25 ]

     उस शाम  कई लोगों को इमली के आकार वाली छोटी केसरिया मछली दिखाई दी, जो अपने शरीर से धुआं छोड़ कर साफ़ पानी को मटमैला बनाती है, और आँखों के लिए उथले पानी और गहरे पानी के बीच भ्रम पैदा करती है.
     लेकिन जल-प्रपात के बाद कुछ दूर पर बने वर्लपूल की उद्दाम लहरों के बीच जब रस्बी को भी उस मछली की झलक दिखाई दी तो उसकी आँखें पथरा गईं.
     वह कई घंटों से किसी पागल की तरह वहां अकेली बैठी उस नहर-नुमा जलाशय में नज़रें गढ़ाए थी. उसे पीले-केसरिया रंग की तार-तार हुई चादर जब पानी के वेग में थपेड़े खाती दिखी तो वह किसी ध्यानमग्न साधू की भांति तन्द्रावश  चलती हुई किनारे पर आई और उसने पानी में छलांग लगा दी.
     रस्बी ने जल समाधि लेली.
     वह गहरे पानी के जल-जंतुओं के भोज के लिए नियति द्वारा परोस दी गई.
     अगले दिन स्थानीय अख़बारों में किन्ज़ान के असफ़ल अभियान की एक छोटी सी खबर छपी.

     रात काफी गहरा चुकी थी. बच्चों के माता-पिता को इस बात का घोर आश्चर्य हो रहा था कि आमतौर पर जल्दी सो जाने वाले बच्चे नाना से कहानी सुनने में इतने तल्लीन हो गए कि उन्हें दोपहर से शाम, और शाम से रात हो जाने का कोई आभास न हुआ.सभी को किन्ज़ान की कहानी का अंत जानने की ऐसी उत्सुकता थी कि भूख-प्यास का भी ख्याल न रहा. बच्चों और उनके माता-पिता ने कुछ समय पहले ही घूम कर बफलो नगर के वे सारे स्थान देखे थे, इसलिए उन्हें बिलकुल ऐसा अहसास हो रहा था , जैसे उनके बीच से ही कोई घटना घट कर सामने आ गई हो. कहानी के इस विराम के बाद खुद नाना को भी आभास हो रहा था कि उनके मेहमानों ने दोपहर से कुछ खाया नहीं है.
     तभी दरवाज़ा खुला और दोनों बहनें, जो उस भारतीय परिवार को नाना के यहाँ छोड़ कर नज़दीक ही अपने फ़्लैट में चली गईं थीं, हाथ में एक बड़ी टोकरी में डिनर का सारा सामान लिए हाज़िर हुईं.
     थोड़ी ही देर में सब भोजन की मेज़ पर थे. बहनें बता रही थीं, कि आज उन्होंने खुद भारतीय तरीके से सब्जी बनाने की कोशिश की है. इस बात से बच्चों की उत्सुकता भी बढ़ गई और भूख भी. भोजन के साथ-साथ वार्तालाप भी चलता रहा. छोटी बहन ने बताया कि वह हर सप्ताह जब भी छुट्टी में घर आती है तो एक बार नाना के घर के सामने वाले पेड़ पर टंगे उस घोंसले को देखने ज़रूर  जाती है, जिसे नाना ने वहां खुद बना कर लगाया है.नाना कहते हैं, कि उस घोंसले में एक दिन अपने आप अंडे आ जायेंगे. सभी की दिलचस्पी यह जानने में रहती थी कि अंडे कब और कैसे आयेंगे?
     लेकिन उस भारतीय परिवार की छोटी गुड़िया को उस घोंसले का ज़िक्र अच्छा नहीं लगा.उसे याद आ गया कि उस घोंसले के चित्र बने डिब्बे में कैसे अपने आप आग लगी थी, और उसका हाथ जलते-जलते बचा था. वह एक बार फिर, वह सब याद आ जाने से डर गई.उसकी आँखें लाल होने लगीं, और उसे तेज़ बुखार भी चढ़ने लगा...[जारी...]      

सूखी धूप में भीगा रजतपट [ भाग 24 ]

     रस्बी के मन में हाहाकार सा मच गया. फिर भी उसकी हिम्मत नहीं हुई कि इतने अजनबियों के सामने आकर किसी भी तरीके से किन्ज़ान को रोक-टोक करके ज़लील कर सके. वह ज़बरन अपने आंसू रोक कर पेड़ के पीछे छिप कर खड़ी हो गई और एकटक सारा तमाशा देखने लगी. एकबार उस के दिल में यह भी आया कि ईश्वर उसे  यदि कुछ देना ही चाहेगा तो शायद किन्ज़ान को उसके मिशन में कामयाबी ही देदे. लेकिन यह ख्याल जैसे आया, वैसे ही तितर-बितर भी हो गया, क्योंकि तभी उसकी आखों के सामने आकाश से गिरता पानी का वह दैत्याकार झरना किसी भीगे रजतपट की तरह फ़ैल गया.
     ये क्या ? रस्बी की दुनिया लुट गई.
     हाथों में रंगीन रूमाल लिए दोस्तों और उन महिलाओं ने किन्ज़ान को रवाना किया...उसकी पीली-सुनहरी-केसरिया  नौका विशालकाय बॉल की तरह किनारे के उथले पानी में हिचकोले खाने लगी.
     एक तीखे चीत्कार के साथ रस्बी पलटी और अपने घोड़े पर सवार होकर विपरीत दिशा में बेतहाशा दौड़ने लगी.बहते पानी की गर्ज़ना में तमाम आवाजें ज़ज्ब हो गईं, रस्बी की तमाम उम्मीदों की तरह.
     पानी की रफ़्तार किनारों पर कम, किन्तु मझधार में बेहद तीव्र थी. रस्बी के मानस में सब गड्ड-मड्ड हो गया. वह दिशाहीन सी, सैंकड़ों तूफानों के मुकाबले तांडव करते शिव की  तरह कायनात से लड़ रही थी.किसी को कुछ पता नहीं था, किसी सूरज से टूट कर कोई उल्का सी गिरी थी, जिसके भीषण दोलन से नए ध्रुवीकरण जन्मने थे, क्या बचना था, क्या बीतना था, सब समय के गर्भ में था. अथाह  पानी किसी अभिशप्त वीतरागी चिर-संन्यासी सा अपनी धुन में गिर रहा था. मानो विधाता  की बनाई सृष्टि को धो डालने का पावन कार्य उसी को मिला हो.
     आसमान में चहचहाते परिंदे भी एक नज़र उस अलौकिक नौका पर डालने से खुद को रोक नहीं पा रहे थे.जहाँ से नौका अभियान शुरू हुआ था, वहां आसपास के पेड़ों पर पोस्टरों की शक्ल में लिखी इबारतें, प्रार्थनाएं, और कामनाएं कसौटी पर थीं. किन्ज़ान के चित्र के साथ "जब हम दुनिया से लौट कर जायेंगे, तो आकाश में अगवानी करता खुदा उन  साँसों को नहीं गिनेगा,जो हमने यहाँ लीं, बल्कि उस इबारत को पढ़ने की कोशिश करेगा जो हम अपने क़दमों के निशानों से धरती के सीने पर लिख जायेंगे" लिखी हुई पंक्तियों वाला कागज़ किसी कटी पतंग की तरह हरे-भरे जंगल में मंडरा रहा था. कुछ कागजों पर किन्ज़ान के हाथ से लिखी अपनी स्कूल-प्रार्थना की पंक्तियाँ भी थीं.
     आसमान नहीं चाहता था कि सूरज उस खौफ़नाक लम्हे की तस्वीर उतारे, इसलिए उसने दो मुट्ठी बादल सूरज पर बिखेर कर उसे धुंधला कर दिया था. थोड़ी देर के लिए सारा आकाश सांस रोके स्तब्ध सा रुक गया था. दुनिया की किसी दाई  ने किसी प्रसूता माँ के गर्भ से जुड़ी उसके शिशु की नाल अब तक इस तरह कभी न काटी थी...[जारी...]     

Friday, March 30, 2012

सूखी धूप में भीगा रजतपट [ भाग 23 ]

     जिस समय दरवाज़े पर घंटी बजी, रस्बी किन्ज़ान के सर में पट्टी बाँध रही थी. टेप को एक ओर रख कर रस्बी ने ही दरवाज़ा खोला. और कोई समय होता तो वह ख़ुशी से उछल पड़ती, किन्तु इस समय उसके मन पर किन्ज़ान की चोट  का बोझ हावी था, वह कायदे से हंस भी न सकी. फिर भी उसके चेहरे की बदली रंगत भांप कर किन्ज़ान भी दरवाज़े की ओर देखने लगा. दरवाज़े पर एक बेहद ठिगना आदमी खड़ा था जो अपनी लम्बी दाढ़ी की वज़ह से कोई मुस्लिम मालूम होता था. उसने रस्बी से कुछ कहा, फिर किन्ज़ान की ताज़ा चोट को गौर से  देखता हुआ वापस लौटने लगा. रस्बी ने इशारे से किन्ज़ान को भी दरवाज़े  पर बुलाया.
     दरअसल रस्बी ने पिछले दिनों एक घोड़ा खरीदने के लिए ऑर्डर दिया था, जिसकी जानकारी अभी तक किन्ज़ान को भी नहीं थी.अभी-अभी आया अजनबी घोड़ा लेकर आया था, जो उसने थोड़ी दूर पर एक पेड़ के नीचे बांध कर खड़ा किया था. किन्ज़ान हैरानी से उसे देखने लगा. रस्बी को ज़रा भी हैरानी नहीं थी, क्योंकि वह कुछ दिन पहले उस अजनबी से सवारी का प्रशिक्षण भी ले चुकी थी.
     रस्बी ने एक बार नज़दीक जाकर घोड़े को पुचकारा तो घोड़ा भी जैसे उसे पहचान गया, वह मुंह नीचे कर रस्बी की हथेली चाटने लगा.
     रस्बी चाहती थी की किन्ज़ान थोड़ी देर आराम करे, लेकिन किन्ज़ान रस्बी से थोड़ी देर में आने की बात कह कर निकल गया. रस्बी उसके जाने से मन में संतुष्ट ही हुई, क्योंकि इस से उसे यह आभास हो गया की किन्ज़ान की चोट बहुत गहरी नहीं है.वह हलके-फुल्के कदमों से घर में घुसी. अब उसे अपने और किन्ज़ान के साथ-साथ घोड़े के दाने-पानी का प्रबंध भी देखना था.
     दोपहर ढलने को आ गयी, लेकिन किन्ज़ान अब तक नहीं लौटा था. रस्बी ज्यादा चिंतित इसलिए नहीं थी, क्योंकि अब वह भली-भांति जानती थी कि वो इस वक्त कहाँ होगा.फिर भी, वह बिना कुछ खाए पिए गया था, और अब काफी समय हो गया था.
     जिस तरह घर में नया स्कूटर आने पर लड़के उसे चलाये बिना नहीं मानते, रस्बी का मन भी घुड़सवारी को ललचाया. मौका भी था, किन्ज़ान को बुला लाने का बहाना भी. हैट लगा कर रस्बी इधर-उधर देखती हुई पेड़ के करीब पहुंची.
     रस्बी ने नदी किनारे पहुँच कर दूर से ही देखा, जिस पेड़ पर किन्ज़ान और उसके दोस्त ने झंडा बांधा था, वह बहुत दूर से ही दिखाई दे रहा था. पीले और केसरिया रंग की बॉलनुमा नाव भी वहां मौजूद थी. किन्ज़ान के तीन-चार मित्र अर्नेस्ट के साथ वहां पहले से ही मौजूद थे. रस्बी दूर ही उतर कर खड़ी हो गयी, और छिप कर सारा नज़ारा देखने लगी.
     थोड़ी ही देर में दो महिलाएं एक कार से वहां पहुँचीं, और उतर कर नाव के समीप बढीं. उनमें से एक के हाथों में प्यारा सा ब्राज़ीलियन नस्ल का छोटा सा कुत्ता था. कुत्ते की आँखों पर काला चश्मा था और उसके गले में रेशमी स्कार्फ बांधा हुआ था. उस महिला ने किन्ज़ान  का हाथ अपने हाथ में लेकर चूमा...[जारी...]        

Thursday, March 29, 2012

सूखी धूप में भीगा रजतपट [ भाग 22 ]

     भागती, दौड़ती, घबराती, और अपनी जिंदगी पर हैरान होती, रस्बी घर चली आई. वह आकर इस तरह अपने बिस्तर पर लेट गई, जैसे उसे कुछ पता न हो. उसे किन्ज़ान के बारे में भी कुछ पता न चला. वह कब आया, आया कि न आया.
     वह एकटक छत की ओर देखती मन ही मन गुनगुनाने लगी-" सोना होगा सबको, आई पारसपत्थर लेकर रात...रात छुएगी जिसको-जिसको, भूल रहेगा दिन को..." नींद रस्बी की आँखों से कोसों दूर थी. उसकी थकान, उसकी बेचैनी, सब उसका साथ छोड़ गए थे. वह अब डर भी नहीं रही थी.उसे ऐसा लग रहा था, मानो वह उस फांसी-स्थल को अपनी आखों से देख आई हो, जहाँ उसके बेटे को नियति फांसी चढ़ाने वाली हो.
     अचानक रस्बी जोर-जोर से रोने लगी. उसे इसी तरह रोते-रोते नींद आ गई.
     रस्बी ने वह जल-प्रपात अपने जीवन में दर्ज़नों बार देखा था. उसे याद नहीं, कि उस अथाह जल-राशि के गिरते तूफ़ान ने उसे कभी भी यह संकेत दिया हो, कि एकदिन वह उससे उसका बेटा मांगेगा. झरने को पार करने के बाद बिजली के ज़लज़ले की तरह वर्लपूल तक जाता हुआ पानी एक ओर, और अपने पेट से पैदा किया रुई के फाहे जैसा बेटा, जो अब भी एक युवा होता किशोर ही था, दूसरी ओर.
     रस्बी को किन्ज़ान की प्रेमिका मिल गई. उसने कस कर उसे पकड़ लिया. लड़की एक ओर तेज़ी से भागने लगी. रस्बी उसके पीछे-पीछे दौड़ी.रस्बी इस बदहवासी से दौड़ रही थी कि राह चलते लोग उसे पागल समझे.लड़की के हाथ में आते ही उसने लड़की को कन्धों से पकड़ कर झिंझोड़ डाला- बोल, बोल तू करेगी न इतना सा काम... तू मेरे बेटे से एक झूठ बोल देगी? लड़की ने डर और परेशानी से आँखे बंद कर लीं. वह कोई उत्तर नहीं दे सकी. रस्बी फिर चिल्लाई... तू झूठ बोल दे उस से... वह छोटा नहीं है... वह दुनिया जीतने का सपना देख सकता है, तो ऐसा भी कर सकता है...बोल, कहेगी न उस से जाकर...कह कि तेरे पेट में उसका बच्चा है...!
     न जाने क्या हुआ, कि लड़की भी खो गई, और रास्ते के तमाशबीन भी...
     रस्बी ने उस रात ऐसे न जाने कितने सपने देखे.
     सुबह नाश्ता बनाते समय वह अचानक किन्ज़ान से बोली- दुनिया में पहले भी कोई ये काम कर चुका है, जिसके लिए तू अपनी हत्या करने जा रहा है?
     इस दो-टूक सवाल से किन्ज़ान एकाएक सकपका गया. संभल कर बोला- तुम क्या कह रही हो माँ, हर काम दुनिया में कभी न कभी हुआ है, और किसी न किसी ने किया है.
     मैं तुझ पर मेरे बेटे को मारने का केस करूंगी.
     किन्ज़ान हंसा. फिर गंभीर होकर बोला- यदि मैं अपने मकसद में कामयाब हो गया तो? तुम मुकदमा हार जाओगी...कामयाब नहीं हुआ तो ...
     -हाँ...हाँ...बोल आगे...रुक क्यों गया? बोल...आगे बोल...और रस्बी ने ओवन से निकली तेज़ गरम प्लेट झन्नाटेदार तरीके से किन्ज़ान के सर पर खेंच कर मारी...[जारी...]         

Wednesday, March 28, 2012

सूखी धूप में भीगा रजतपट [ भाग 21 ]

     धुआं धार  गिरते पानी के करीब से गुजरती सड़क से किन्ज़ान धीरे-धीरे जा रहा था, किन्तु उसके बाद नदी की ओर जाने वाली सड़क तक आते-आते उसकी चाल बहुत तेज़ हो गई. अब उसका पीछा करने के लिए रस्बी को लगभग दौड़ना ही पड़ रहा था. वह थोड़ी ही देर में हांफने लगी. उसका मन हुआ कि वह कोई टैक्सी लेले. पर एक तो उसे यह मालूम नहीं था कि किन्ज़ान कहाँ, और कितनी दूर जा रहा है, दूसरे वह इस विचार से भी थोड़ा हिचकिचा रही थी कि टैक्सी ड्रायवर उसे इतनी रात गए इस तरह एक युवक का पीछा करते देख न जाने क्या सोचे ?वह भी तब , जब इस ख़ुफ़िया उपक्रम में उसके आगे जाने वाला लड़का खुद उसका बेटा ही हो.
     रस्बी ने टैक्सी का विचार छोड़ा और हिम्मत कर के अपनी चाल कुछ और बढ़ा दी.थोड़ी देर बाद रस्ते की गलियों से निकल कर एक और लड़का किन्ज़ान से आ मिला. रस्बी ने गहरे अँधेरे में भी अर्नेस्ट को पहचान लिया. रस्बी को यह जान कर थोड़ी राहत ही मिली कि आने वाला लड़का किन्ज़ान का दोस्त ही है.
     उफनती नदी के किनारे-किनारे जाती सड़क आगे जाकर और सुनसान हो गई. छोटे-बड़े पेड़ों और झाड़ियों से सड़क के किनारे का इलाका किसी बाग़ और जंगल का मिला-जुला रूप दिखाई दे रहा था.
     एक बड़े से घने फैले पेड़ के नीचे किन्ज़ान और अर्नेस्ट को ठहरते देख कर रस्बी ने राहत की सांस ली. पेड़ के नीचे घास-फूस और सूखे पत्तों के बीच से अर्नेस्ट ने खींच कर एक बड़ा सा लोहे का पाइप उठाया, तो रस्बी को अनुमान हो गया कि वे दोनों पहले भी यहाँ आ चुके हैं. थोड़ी ही देर में अर्नेस्ट ने जेब से निकाल कर एक रंगीन कपड़ा पाइप के सिरे पर बाँधा, और जब तक वह पाइप को सीधा करता, किसी बन्दर की भांति लपक कर किन्ज़ान पेड़ पर चढ़ चुका था.उसने पाइप के सिरे को पेड़ की एक बहुत ऊंची डाली से बाँधने के लिए ऊपर खींचा. दूर से देखती रस्बी हैरान थी. उसने किन्ज़ान को इस तरह ऊंचे पेड़ पर चढ़ते पहले कभी नहीं देखा था.
     देखते-देखते अमेरिका का राष्ट्रीय ध्वज हवा में ऊंचा लहराने लगा. रस्बी ने रूमाल से अँधेरे में ही अपनी आँखों से आंसू पौंछे. अब उससे ज्यादा देर वहां खड़ा नहीं रहा गया. वह किसी भी सूरत में किन्ज़ान को यह भी पता नहीं लगने देना चाहती थी, कि उसके पीछे-पीछे चोरों की तरह वह भी चली आई है.
     वह झटपट पलट कर लौटने लगी. वैसे भी उसका मकसद पूरा हो गया था. उसने वह जगह देख ली थी, जहाँ से किन्ज़ान अपनी खौफ़नाक ज़ुनूनी यात्रा शुरू करने वाला था.
      इस जगह से नदी टेढ़े-मेढ़े रास्ते तय करती हुई  लगभग साढ़े-पांच किलोमीटर के फासले के बाद अलौकिक, विशालकाय,अविश्वसनीय "नायग्रा फाल्स' के रूप में गिरती थी. बेहद चौड़े पाट की नदी के उस पार  अमेरिका की सीमा थी, और कनाडा का आरम्भ होता था. जगमगाते रौशनी के ब्लॉक्स की शक्ल में इस पार और उस पार के दोनों शहर बेहद खूबसूरत दिखाई देते थे.बीच में था यह बियाबान जंगल.
     रस्बी के जाने के बाद दोनों मित्रों ने अपने साथ लाये हुए  कुछ पोस्टर्स भी पेड़ों पर यहाँ-वहां चिपकाए.
     अर्नेस्ट ने जेब से निकाल कर छोटी टॉर्च पानी में डाली, शायद उसे इमली के आकार वाली केसरिया रंग की वह मछली फिर कहीं दिखी थी...[जारी...]

Tuesday, March 27, 2012

सूखी धूप में भीगा रजतपट [ भाग 20 ]

     बहुत आशा, उल्लास, उमंग,जोश, उत्साह, जिजीविषा के दिन बिता कर किन्ज़ान और अर्नेस्ट जब बफलो वापस पहुंचे, तो पड़ौसी मित्रों की देख-रेख में लेटी रस्बी को पाया, और साथ ही पाई यह खबर भी, कि रस्बी को ज़बरदस्त हार्टअटैक होकर चुका है. उनके आते ही मित्र हितैषी और अर्नेस्ट भी, सभी चले गए, और किसी अपराधी की भांति सर झुका कर किन्ज़ान ने उन्हें विदा किया.
     रस्बी में बेटे के लौटते ही कुछ चेतना आ गई, और वह घर के छोटे-मोटे कामों के लिए उठने लगी. उसके मन में भीतर ही भीतर आशा की एक नामालूम सी लौ भी दिपने लगी कि शायद अब किन्ज़ान कुछ दिन अपने ज़ुनून के साये से निकल कर रह सके.
     घर की फिजां में उठते-बैठते जैसे कोई आवाज़ गूंजती थी- "मौत को साथी बनाया, चाँद-सूरज जैसे दोस्त, कौन था फिर किस से हम आराम करना सीखते?" दो दिन जैसे-तैसे बीते, कि घर की दीवारों पर पतझड़ के बाद की कोपलों की तरह किन्ज़ान के सपने उगने लगे. रस्बी की उम्मीदों पर फिर से बर्फ जमने लगी.
     एक दिन दोपहर में किन्ज़ान को बिना बताये रस्बी बाज़ार गई, और किन्ज़ान के दिवंगत पिता की एक बड़ी सी तस्वीर बहुत सुन्दर फ्रेम में जड़वा कर लाई. किन्ज़ान से कोई मदद लिए बिना उसने दीवार पर आदर से उसे टांगा. किन्ज़ान भी आश्चर्य से उसे देखने लगा, क्योंकि उसने यह तस्वीर पहले कभी देखी नहीं थी.वह एकटक तस्वीर को देखता रहा, उसे कुछ न सूझा कि तस्वीर के बारे में वह माँ से क्या कहे. किन्तु उसके कुछ बोलने  से पहले ही खुद रस्बी बोल पड़ी- उन्होंने देश के लिए जान दे दी,कोई तो उन्हें याद रखे.
     किन्ज़ान ने तस्वीर की ओर देख कर एकबार अपने सीने और आँखों पर हाथ लगाया. वह इस बात से बिलकुल बेखबर था कि उसकी माँ की बात में कोई व्यंग्य छिपा है. उसे तो माँ की बात से उलटे और जोश आ गया और वह उन्हें अखबार में छपी वह तस्वीरें दिखाने लगा, जो न्यूयॉर्क में छपी थीं . माँ ने उस तस्वीर को ऐसे देखा, जैसे किन्ज़ान ने उन्हें उनकी तबियत बिगड़ने के दौरान खींचा गया एक्स -रे दिखाया हो. 
     बफलो में भी न्यूयॉर्क के मीडिया में छपी खबर का असर कहीं-कहीं दिखाई दिया, जब किन्ज़ान की नौका को पहचान कर कुछ बच्चे कौतुहल से उसके इर्द-गिर्द जमा हुए.
     एक रात बहुत देर से खाना खाने के बाद किन्ज़ान जब घर से निकला तो रस्बी का माथा ठनका. वह जाते हुए किन्ज़ान से कुछ पूछ तो न सकी, मगर उसका जी जोर-जोर से घबराने लगा.उसने एक बड़े से स्कार्फ से अपने सर पर पट्टी बाँधी, और फिर काला चश्मा लगा, अपने आंसुओं को पोंछती हुई उसके पीछे-पीछे पैदल ही निकल पड़ी. किन्ज़ान बहुत मंथर गति से  टहलता हुआ जा रहा था.पूरा शहर रंग-बिरंगी लाइटों में नहाया हुआ था. दूर गिरते जल-प्रपात के छींटों का अंधड़ पानी भरे बादलों के झुरमुट की शक्ल में शहर के आलम को भिगो रहा था...[जारी...]    
           

Monday, March 26, 2012

सूखी धूप में भीगा रजतपट [ भाग 19 ]

     किन्ज़ान ऐसे प्रस्तावों पर भावुक हो गया. वह उम्र में कम ज़रूर था, लेकिन इतना ज़रूर समझता था कि अभी उसने सफलता का केवल सपना देखा है, वह अभी तक कोई बड़ी कामयाबी का साक्षी नहीं बना है, इसलिए सभी प्रस्तावों को उसने खामोश रह कर ही सुना. वह इन पर कोई भी फैसला ज़ल्दबाज़ी में नहीं करना चाहता था.
     दूसरे, आज शाम से ही वह भीतर से कुछ बेचैन सा भी था.न जाने क्यों उसे अन्दर ही अन्दर कोई घुटन सी भी महसूस हो रही थी. उसे माँ रस्बी का ख्याल भी आ रहा था जिसे वह घर पर अकेला छोड़ कर आया था.
     रात को रस्बी के साथ भी कुछ सुखद नहीं घटा. किन्ज़ान के जाने के बाद वह घर में अकेली थी. उस रात उसने बेमन से अपने लिए भोजन बनाया, किन्तु खाया नहीं. उसे भूख ही नहीं लगी. रात को जिसे वह ज़ल्दी नींद का आना समझ रही थी, दरअसल वह भी उसकी कमजोरी से उपजी तन्द्रा ही थी. देर रात तक वह करवटें बदलती रही. ढलती रात का भारीपन उसे इस तरह जकड़े रहा, मानो वह गहरी नींद में हो. कुछ देर बाद ही उसकी नींद-नुमा विश्रांति में उसे न जाने कहाँ-कहाँ के दृश्य दिखाई देने लगे. नींद में उनींदा सा एक रजतपट आँखों के सामने फ़ैल गया.
     रस्बी को लगा, जैसे वह तेज़ी से कदम जमाये किसी चट्टान पर खड़ी है और उसके पाँव तले से ज़मीन खिसकती जा रही है. देखते-देखते पाँव के नीचे से गुज़रती रेत पानी में तब्दील हो गयी और वह तेज़ बहाव में गिरती-पड़ती लहरों से बचने की कोशिश में लड़खड़ा रही है.पानी का बहता दरिया उसके क़दमों से उसका जहां छुड़ाये दे रहा है.तेज़ रफ़्तार गाड़ी की खिड़की से भागते दृश्यों की सी चपलता भागते पानी में भी समा गई है. और एक मुकाम आखिर ऐसा आ ही गया, जब आसमान सी ऊंचाई से वह मानो नीचे गिर रही है. पानी के एक अदना से कतरे की तरह. रस्बी जीवन की आस छोड़ कर जैसे किसी पाताल में आ गिरी हो. गहरे और लहरदार पानी के कई जंतु किसी महाभोज के लिए उसकी ओर दौड़े. रस्बी ने पूरी ताकत से अपनी मुट्ठियाँ भींच लीं. मुट्ठियों का कसाव इतना ज़बरदस्त था कि उसके अपने ही नाखूनों से उसकी अपनी हथेलियाँ लहू-लुहान हो गईं. एक जोर की आवाज़ हुई. आवाज़ भी ऐसी जैसे कहीं कोई तारा टूटा हो. आमतौर पर उल्का-पात की कोई आवाज़ नहीं होती, मगर यह उल्कापात रस्बी के अपने भीतर इतनी शिद्दत से हुआ कि आवाज़ भी आई और दहशत भरी गूंज भी.
     उसके बाद दोपहर तक रस्बी बेहोशी-भरी नींद में ही रही. जब उसे होश आया, तो उसने अपने को पलंग से नीचे गिरा हुआ पाया. पानी की दरियाई  चादर को अपनी मुट्ठी में कैद करने की कोशिश में उसने पलंग की चादर को मुट्ठी में भींच कर समेट दिया था. हथेलियों का खून जम कर सूख चुका था...[जारी...]   

Sunday, March 25, 2012

सूखी धूप में भीगा रजतपट [ भाग 18 ]

     किन्ज़ान भाव-विभोर हो गया. उसने कभी नहीं सोचा था कि उसके इरादे को इतनी उम्मीद से लिया जायेगा. केवल एक माँ रस्बी को छोड़ कर दुनिया का हर आदमी जैसे उसके सपने के पूरा होने में दिलचस्पी रखता था. उसे तरह-तरह के प्रस्ताव भी मिलने शुरू हो गए थे.
     अल्बानी के एक कालेज  ने उसे आश्वासन दिया था, कि यदि वह अपने मिशन में कामयाब रहता है, तो उसे तैराकी का प्रशिक्षण देने के लिए कोच रखा जायेगा. किन्ज़ान इस प्रस्ताव से अभिभूत हो गया. उसने तो आजतक आजीविका के लिए सेना में भर्ती होने की  अपनी माँ की हिदायत के अलावा और कोई रास्ता जाना ही नहीं था.
      मैन-हट्टन की सडसठवीं स्ट्रीट में कपड़ों की धुलाई करने वाली एक चीनी महिला ने अखबार के माध्यम से किन्ज़ान से अनुरोध किया था कि वह जिन कपड़ों में नायग्रा को पार करेगा, उन्हें लौंड्री मालकिन ऊंची कीमत देकर खरीदना चाहेगी.
      पिट्सबर्ग के एक भारतीय सज्जन ने घोषणा की थी कि सफल होने के बाद किन्ज़ान के नाम पर भारत में एक स्विमिंग-पूल निर्मित करवाएंगे.
     रात साढ़े ग्यारह बजे जब किन्ज़ान और अर्नेस्ट कीमियागर के साथ डिनर खा रहे थे, कीमियागर के पास पच्चीसवीं गली से एक महिला की गुज़ारिश आई कि यदि किन्ज़ान अपने अभियान में उसके ब्राजीलियन नस्ल के छोटे पप्पी को साथ में रख सकता है, तो वह इस मुहिम के लिए दस हज़ार डॉलर देगी.
     किन्ज़ान की आखों में आंसू आ गए. काश, एक बार, सिर्फ एक बार उसकी माँ भी कह देती कि "किन्ज़ान अपने मकसद  में कामयाब हो, यह मेरा आशीर्वाद है".लेकिन उसकी माँ का उस पर अहसान था, उसका माँ पर नहीं, क्योंकि माँ ने उसे जन्म दिया था, किन्ज़ान उसे अब तक कुछ न दे पाया था, सिर्फ भय के अलावा.
     रात के गहराते-गहराते किन्ज़ान से मिलने दो व्यक्ति आ गए. वे एक नामी-गिरामी कंपनी से आये थे, जो शहर के बीचों-बीच स्थित थी. कम्पनी हर साल अपने हजारों कर्मचारियों के लिए एक टापू पर स्थित भव्य बगीचे में एक गेट-टुगेदर आयोजित करती थी. उसमें सभी कार्मिक अपने परिवार के साथ उपस्थित होते थे. दिन-भर मनोरंजन और खानपान का दौर चलता था, मेलों की भांति आयोजन होता था. उनका कहना था कि यदि किन्ज़ान अपनी उस नौका का वहां प्रदर्शन करे, जिस से वह नायग्रा को पार करने वाला है, तो कंपनी उसके अभियान में खासी मदद करेगी. वहां उसकी नौका एक आकर्षण का केंद्र होगी, और उस पर कम्पनी की ओर से इस आशय का बैनर भी प्रदर्शित किया जायेगा...[जारी...]
       

सूखी धूप में भीगा रजतपट [ भाग 17 ]

     अखबारों में किन्ज़ान के प्रयासों  का ज़िक्र होने में उस कीमियागर का हाथ भी रहा, जिसने उसकी नौका में प्लास्टिक पर लेप लगाया था.उसने शाम को अपनी कम्पनी के बैनर के साथ 'टाइम स्क्वायर'पर किन्ज़ान के लिए अभूतपूर्व मजमा जुटाया. नायग्रा की विशाल तस्वीर के साथ किन्ज़ान की खिलखिलाती तस्वीर के सामने स्वयं किन्ज़ान का खड़ा होना आकर्षण बन गया. छोटे स्कूली बच्चों से लेकर युवा और बुजुर्गों तक ने न केवल किन्ज़ान से हाथ मिलाया, बल्कि उसके साथ तस्वीर खिंचवाने वालों की कतार लग गई. दुनिया के कौने-कौने से आने वालों ने अपने देश, अपने नगर , अपने समुदाय, अपने परिवार और खुद अपनी तरफ से उसके अभियान के लिए दुआएं दीं.
     वहां लगाये गए सफ़ेद बोर्ड पर हस्ताक्षर करने वालों की कोई सीमा न रही- स्टेफेन वन,अमोस एअतों, एबेनेज़ेर एम्मोंस, असा फित्च, दौग्लास हौघ्तों,जमेस हॉल, ठोदोरे जुदः, एडविन ब्र्यंत एबं होर्स्फोर्ड, बेंजामिन ग्रीन, विल्लिं कोग्स्वेल्ल, फ्रेदेरिच्क ग्रिन्नेल, हिरम मिल्स, एमिली रोएब्लिंग, वाशिन्ग्तों रोएब्लिंग, अलेक्सान्दर कास्सत्त, जॉन फ्लैक विनस्लो, विल्लिं विले, लेफ्फेर्ट बुक्क, मोर्देकाई एन्दिकोत्त, हेनरी रोव्लंद, विल्लिं पित्त मासों, पल्मेर रिच्केट्स, जॉन अलेक्सान्दर, फ्रांक ओस्बोर्न, गार्नेट बल्तिमोरे, गेओर्ग फेर्रिस, जों लोच्खार्ट, गेओर्गे होर्तों, वाल्टर इरविंग, संफोर्ड क्लुएत्त, मार्गरेट सगे, एमिल प्रेगेर, रोबेर्ट हंट, एरिक जोंस्सों, मिल्टन ब्रुमेर, चले पत्रिच्क बेडफोर्ड, अल्लें दू मोंट, लिंकों हव्किंस, चौनसे स्टारर, राल्फ पेचक, कित मिल्लिस, रोबेर्ट विद्मेर, होवार्ड इसेर्मन्न, लोइस ग्राहम, जोसेफ गेर्बेर, रोबेर्ट लोएव्य, अलन वूरहीस, गेओर्गे लो, शेल्दों रोबर्ट्स, ननकी देलोये फित्जरॉय, मत्ठेव हंटर, च्रिस्तोफेर जफ्फे, हेर्मों हॉउस, दोन अन्देरसों, मर्चियन होफ्फ़, राय्मोंद तोम्लिंसों, म्य्लेस ब्रांड, इवर गिएवर, जों स्विगेर्ट, रोबेर्ट रेस्निच्क, रोलैंड स्च्मित्त, मार्क एमेर अन्देरसों, अदम पत्रिच्क बीके, मौरिसियो सस्पेदेस मोया, निचोलास गेर्मान कूपर, रोहन दयाल, जों थोमस दुरस्त, ज्होऊ फंग, स्कॉट गोर्डन घिओसल, वैभवराज , मयंक गुप्ता, रमण चक्रधर झंध्याला, ज्होंग्दा ली, श्रुती मुरलीधरन, हर्ष नाइक, करणार तसिमी, स्टेफनी तोमसुलो, जेंनिफेर मारी तुर्नेर, ज्हेंग क्सु, शुन यो, दिन्ग्यौ जहाँग, जोशुआ,ब्र्याँ, कयले, मिके, स्टेफेन, एरिक, रिचर्ड, एरिन, जेंनिफेर, मिचेल्ले, दानिएल, त्रविस, अदम, जोनाथों, ब्रित्तान्य, जॉन,थोमस, जोसेफ, नोर्मन, श्याना, जोसेफ, मत्ठेव, कैत्लिन, रिचर्ड, कार्ल, जाकोब, रोबेर्ट, मत्ठेव, थोमस, बेंजामिन, पत्रिच्क, तोड्द, अन्थोनी, टिमोथी, रंजित, अक्षय,अनुज, अंकेश, गौरव...यह सूची ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी.
     एम्पायर स्टेट बिल्डिंग के सामने जब किन्ज़ान पहुंचा, तो एक सपना और उसके दिल में पलने लगा. लेकिन जिस तरह एक म्यान में एक तलवार ही रह सकती है, किन्ज़ान भी अपने उसी लक्ष्य से बंध. गया  जिसके लिए शायद वह पैदा हुआ था....[जारी...]      

सूखी धूप में भीगा रजतपट [ भाग 16 ]

     दोपहर बाद घर लौट कर किन्ज़ान के दोस्त अर्नेस्ट ने ट्रायल के परिणाम रस्बी आंटी को बताने चाहे तो माहौल बिलकुल ऐसा था, मानो कोई मीट-मर्चेंट बकरे को प्रफुल्लित होकर बता रहा हो, कि वह कौन सी बोटी किस तरह हलाल करेगा. निश्चय ही यह सब अगर अर्नेस्ट की जगह किन्ज़ान बता रहा होता तो रस्बी या तो एक थप्पड़ उसे रसीद करती या फिर पास की दीवार से अपना सर ज़रूर टकरा देती. लेकिन अर्नेस्ट की बात उसे ऐसे सुननी पड़ी, जैसे किसी डॉक्टर के हाथों कोई नन्ही मासूम बच्ची कड़वा सिरप आँख बंद कर के पी रही हो.
     उधर भोला अर्नेस्ट इस इंतज़ार में था, कि अब आंटी उन्हें कुछ खाने-पीने को देंगी, और किन्ज़ान कनखियों से माँ के सपाट चेहरे पर आते-जाते रंगों की मशाल की तपन महसूस कर रहा था. उसे हैरानी होती थी कि माँ उसके कुछ नया करने के जज़्बे को समझती क्यों नहीं ?
     लेकिन उसी शाम अपनी धुन के पक्के किन्ज़ान ने न्यूयॉर्क जाने की तैय्यारी शुरू कर दी. एक कोरियर कम्पनी से अपनी नौका को भेजने का प्रयास खर्चीला, मगर संभव जान पड़ा. उधर किन्ज़ान और अर्नेस्ट ने अपनी रेल यात्रा की तैय्यारी कर डाली. 
     न्यूयॉर्क केवल उनकी सुविधा की मंजिल नहीं था, बल्कि महादेश का यह महानगर महान सपनों का रंगमंच भी था, यह किन्ज़ान को दूसरे दिन से ही आभास होने लगा.इसे संयोग ही कहा जायेगा कि न्यूयॉर्क के एक अखबार के रिपोर्टर ने पिछले दिनों बफलो में उनके ट्रायल के दौरान उफनती नदी के हहराते प्रवाह में लहरों के करेंट से पंजा लड़ाते किन्ज़ान का फोटो भी खींच लिया. रंगीन बॉल-नुमा नौका अखबार के पन्ने पर तैर कर न्यूयॉर्क के घर-घर में समां गई, और किन्ज़ान को एक संभावित  जांबाज़ खिलाड़ी के रूप में शहर पहले ही जान गया. 
     और अगले दिन रॉकफेलर विश्वविद्यालय के समीप हडसन की लहरों की ताल पर बिजली की गति  से एक ग्लोबनुमा नौका के पीछे पानी पर फिसलते किन्ज़ान को देखने जगह-जगह भीड़ जमा हो गई. कोई हाथ हिला कर उसका अभिवादन कर रहा था तो कोई उसके  किनारे पर आने का इंतज़ार कर रहा था. नदी किनारे पार्कों में टहलते एक से एक उम्दा नस्लों के कुत्ते तक कौतुक से रेलिंग पर पाँव टिकाये किन्ज़ान की नौका को पानी के गगन-चुम्बी छींटे उड़ाते देखने रुक गए. जिस राह से सुबह से शाम तक तरह-तरह के जहाज और  नौकाएं दोनों ओर की अट्टालिकाओं की ऊंचाइयों से इर्ष्या करते पानी का सीना चीरते गुजरते थे, वहां से एक दिन नायग्रा फाल्स का मान-मर्दन करने का हैरत-भरा मंसूबा लिए एक किशोर को गुजरते हुए भी हजारों लोगों ने देखा. लोगों की भावनाएं और शुभकामनाएं दोनों ओर से बरसीं. 
     अगले दिन किन्ज़ान को मीडिया का एक तोहफ़ा और मिला...[जारी...]      

Thursday, March 22, 2012

सूखी धूप में भीगा रजतपट [ भाग 15 ]

     ...दुनिया का यही कपट-भरा दस्तूर सब का पेट भर रहा है. गहरे पानी में आये कीट फिर लाचार होकर दूसरे जीवों का निवाला बनते हैं.
     किन्ज़ान को किसी ने बताया था कि न्यूयॉर्क में कोई ऐसा कीमियागर है जो प्लास्टिक की बॉल के भीतरी भाग में कोई ऐसा लेप लगाता है, जिससे मजबूती तो आ जाती है, पर बॉल का वज़न नहीं बढ़ता. किन्ज़ान एक बार वहां जाना चाहता था. उसे मैन-हट्टन की उस दुकान का पता भी मिल गया था.
     किन्तु वहां जाना आसान न था.साथ में बॉल को भी इतनी दूर ले जाने में खर्चा भी था और झंझट भी. पहले बफलो में ही एक ट्रायल के लिए अगली सुबह किन्ज़ान अपने मित्र के साथ नायग्रा झरने से लगभग सात किलोमीटर पहले   नदी किनारे पहुँचने की तैयारी करने लगा. सुबह-सुबह वहां तक जाने के लिए एक पिक-अप का बंदोबस्त भी उसने कर लिया.
     अगली सुबह अँधेरे ही दोनों मित्र जब ट्रायल के लिए निकले, तो जितनी स्पीड पिक-अप वैन की थी,उस से कहीं ज्यादा रस्बी के ब्लड-प्रेशर की थी. उस सुबह रस्बी ने किन्ज़ान के दिवंगत पिता को भी बहुत याद किया.
     जंगल के बीच एक गहरे पानी के साफ से किनारे के नज़दीक जब वैन रुकी तो एक बार उतर कर किन्ज़ान ने मुआयना किया. झटपट उसने कपड़े उतार डाले.इसे किन्ज़ान के संतुष्ट हो जाने का संकेत समझ उसके मित्र ने वैन से बॉल उतारने में अपना दिमाग लगा दिया.
     किन्ज़ान एक ऊंची छलांग भर कर पानी में कूद पड़ा. उसने ऊंची लहरों के उद्दाम वेग में गोता लगा कर चारों ओर चक्कर लगाया, चट्टानों और झाड़ियों का जायजा लिया, और फिर अपने दोस्त अर्नेस्ट को दूर से ही हाथ हिला कर इशारा किया.
     अगले पल अर्नेस्ट बॉल के भीतर था. वैन के ड्राइवर ने भी उसे सहारा दिया. पानी की लहरों पर बॉल हिचकोले खाती आगे बढ़ने लगी. वाटर-स्पोर्ट के किसी खिलाड़ी की सी चुस्ती से किन्ज़ान बॉल के इर्द-गिर्द चपलता से तैरता हुआ बढ़ने लगा. कभी बॉल किसी चट्टान से टकरा कर ऊंची उछलती तो भीतर बैठे अर्नेस्ट का जिगर नीचे डूबता. किन्ज़ान की आखों में किसी निष्पक्ष निर्णायक जैसी तत्परता आ जाती.
     बहते जल के प्रकृति में जितने रूप हो सकते हैं, वे सभी उस प्रपात की पूर्व-पीठिका में दर्ज थे. किन्ज़ान हाथ के हलके स्पर्श से बॉल को इधर-उधर धकेलता, जैसे वॉली-बॉल का कोई खिलाड़ी दुश्मन खिलाड़ी से बॉल को बचाने की कोशिश कर रहा हो.
     किन्ज़ान अपनी तैय्यारी से संतुष्ट तो नज़र आया, मगर उसके मन में एक बार न्यूयॉर्क पहुँचने की इच्छा भी बलवती हो गई. शायद सर्वाधिक जोड़ी आँखों में किन्ज़ान की छवि बसाने के लिए हडसन नदी  उसे वहां से पुकार रही थी...[ जारी...]    

Wednesday, March 21, 2012

सूखी धूप में भीगा रजतपट [ भाग 14 ]

     -अपनी जिंदगी जी... खूब बुढ़ापे तक रह. 
     -ये अपने हाथ में है ? किन्ज़ान ने थोड़ा मुस्करा कर कहा.
     -बेटा, बुढ़ापा बहुत अच्छा होता है. जीवन के ढेर सारे अनुभव शरीर के पोर-पोर में रच-बस जाते हैं. ज़ेहन में बहुत सारे ऐसे लोगों का मजमा जुड़ जाता है, जिनसे हम कभी न कभी, कहीं न कहीं मिले होते हैं. चमड़ी की कनात पर हमारी शरारतों के निशान बन जाते हैं. 
     -क्या कह रही हो माँ, थोड़ी देर चुपचाप सो जाओ. 
     -बोलने दे रे, जिस तरह आटे और मक्खन को ज्यादा फेंटने से केक मुलायम और स्पंजी बनता है, वैसे ही बुढ़ापे में हड्डियाँ जीवन की बहारों को खूब झेल कर फोकी और खसखसी हो जाती हैं. इनकी सब हेकड़ी चली जाती है. 
     -माँ, तुम्हे आराम चाहिए...
     -बहुत आराम मिलता है बेटा, आँखों में उन मेलों की झाइयाँ होती हैं, जिनमें हम मंडराते रहे. दांतों पर उन तमाम स्वादों के काले-पीले अक्स आ जाते हैं, जो हमने लिए. चेहरे के पेड़ पर खट्टी-मीठी यादों के शहतूत झुर्रियां बन कर चिपके होते हैं. क़दमों में हर रास्ते पर चल चुकने की थकान लड़खड़ाहट  बन कर गुंथी होती है...बेटा, तू ये सुख छोड़ना मत, बूढ़ा ज़रूर होना.
     -अभी तो तुम भी बूढ़ी नहीं हो माँ, मैं तुमसे काफ़ी छोटा हूँ. 
     -हाँ, अभी तू बहुत छोटा है. तू सोच, कि तू रहेगा. बोल रहेगा न ? 
     किन्ज़ान हंसा. पागलों जैसी लगातार हंसी, किन्ज़ान देर तक हँसता ही रहा. रस्बी को इंजेक्शन लगाने आई एक नर्स किन्ज़ान को देख कर एक पल ठिठकी, मानो सोच रही हो, कि किसे लगाना है? 
     तीसरे दिन रस्बी किन्ज़ान के साथ घर आ गई. घर ने उसके आते ही कई छोटे-मोटे काम अपने आप उसके हाथों में पकड़ाने शुरू कर दिए,जैसे मकड़ी के आते ही दीवार उसे जाला बुनने का काम दे देती है. 
     किन्ज़ान की बंद नौका एक रंग-बिरंगी बॉल की शक्ल में सुन्दर आकार लेने लगी थी.अगले दिन वह उसे नदी पर एक ट्रायल के लिए ले जाना चाहता था. उसने अपने मित्र अर्नेस्ट को समझा दिया था कि अभी सब लोगों को नहीं ले जाना चाहिए. ज्यादा मित्रों के जाने से काम कम होगा और पिकनिक का माहौल ज्यादा बनेगा. 
     अर्नेस्ट खुश हो गया. वह जानता था कि नदी पर वही इमली की शेप वाली नारंगी रंग की छोटी मछली मिलेगी, जो अपने शरीर से धुआं छोड़ कर साफ़ पानी को मटमैला बना देती है. इस से गहरा पानी भी उथला दिखाई देता है, और धोखे से छोटे-मोटे कीट-मकौड़े गहरे पानी की तेज़ धारा में आ जाते हैं...[ जारी...]        

Tuesday, March 20, 2012

सूखी धूप में भीगा रजतपट [ भाग 13 ]

     ...किन्ज़ान के जो दोस्त रोज़ सवेरे अपने दोस्त के जांबाज़ हौसले को संबल देने आते थे, उन्हीं को बदहवासी में रस्बी को क्लीनिक ले जाना पड़ा.समीप की फार्मेसी से सहायता लेकर जब तक किन्ज़ान की प्रेमिका पहुंची, रस्बी की ड्रेसिंग हो चुकी थी, और वह गुमसुम सी बेड पर लेटी थी.किन्ज़ान ने एक मैकेनिक को कुछ काम के लिए बुला रखा था, इस कारण वह अपने काम को समझ कर दो घंटे बाद पहुंचा. घर में टर्मिनेटर की उपस्थिति भी उसी दिन की बाट जोह रही थी, किन्ज़ान को निकलने में इस से भी देर हुई.
     डाक्टर ने शाम तक रस्बी को वहीँ रहने को कहा. किन्ज़ान के साथी कुछ देर बाद चले गए, प्रेमिका भी. उसके बाद ही रस्बी का मौन टूटा.
     -तुम्हें पता है, जब तुम तीन साल के थे, कैलिफोर्निया के बीच पर अपने पिता के साथ तुम पानी से कितना डर गए थे ? रस्बी ने छत की ओर देखते हुए कहा.
     -मुझे ये भी पता है कि पिता ने पानी में मुझे ले जाकर मेरा डर निकालने की कोशिश ही  की होगी.किन्ज़ान ने भी ऐसे स्वर में जवाब दिया, मानो बर्फ़ के घर में से कोई बच्चा  बोल रहा हो.
     -तुम्हारे पिता जब साल्मोन फिशिंग के लिए लेक पर जाते थे, तुम्हें कितना दूर बैठा देते थे. जब तुम पास भी आना चाहते वे तुम्हें आने नहीं देते थे, बल्कि मछली की बास्केट तुम्हें दिखाने के लिए तुम्हारे पास, धूप में चल कर जाते थे. 
     - पिता को यह भी मालूम होगा कि वे मुझे मछली खिलाने के लिए सारी उम्र मेरे साथ नहीं रह सकेंगे, और उन्हें बूढ़ा भी होना होगा.
     -चुप...बकवास मत करो. 
     -.....
     -तुम तो अपने मामा की गोद में बहुत खेले हो. वह कितना अच्छा तैराक था ? कोलंबिया में पानी के खेलों में उसका कितना नाम हुआ. वह आज व्हील-चेयर पर है.अब रस्बी की आँखों में पानी था. 
     -मामा का पानी ने कुछ नहीं बिगाड़ा, पानी में घुली एल्कोहल ने बिगाड़ा. 
     -बहस मत करो. 
     -.....
     -मृत्यु से हर आदमी को डरना चाहिए. 
     -डर मृत्यु में नहीं है, डेथ तो बहुत शांतिपूर्ण है, डर तो केवल मृत्यु से डरने में है. 
     -सेना को भी बहादुर चाहियें, वहां क्यों नहीं जा सकते तुम?
     -पिता और मामा की जिंदगी मेरी जिंदगी का फैसला लेने के लिए मिसाल क्यों बनती है? हम दूसरों की गति से सीखें, तो अपनी उम्र का क्या करें? [जारी...]         

Monday, March 19, 2012

सूखी धूप में भीगा रजतपट [ भाग 12 ]

     ...कहते हैं कि जिस तरह कांटा कांटे को निकालता है,उसी तरह डर भी डर का इलाज करता है. कभी जिस ग्यारह साल की लड़की को अपने तेरह साल के बेटे के साथ सूने घर में देख कर रस्बी डर गई थी, आज अचानक उसका ख्याल रस्बी को आ गया. वह अच्छी तरह जानती थी कि वह लड़की,  उसके बेटे पर नाराज़ होने के बावजूद पिछले चार साल से किन्ज़ान की गर्ल-फ्रैंड है. किन्ज़ान उस से लगातार मिलता है. रस्बी ने उस लड़की की मदद लेने की बात भी मन में सोच डाली. अगर वह कहेगी, तो शायद किन्ज़ान अपनी अजीबो-गरीब जिद छोड़ देगा, उसे ऐसा विश्वास हो गया, और कुछ दिन गंगा उलटी बही. जिस लड़की के साए से भी रस्बी किन्ज़ान को बचाती थी, अब उसी के बारे में किन्ज़ान से पूछ-पूछ कर उसे घर लाने की बात कहने लगी.
     सत्रह साल का किन्ज़ान इसके आगे और कुछ नहीं सोच पाता था, कि जब उसके घर में उसकी मित्र को बुलाया जा रहा है, तो उसे लाना ही चाहिए. हाँ, इतना सतर्क वह ज़रूर रहता था कि कहीं माँ के सामने उस से अंतरंगता उसकी मित्र को किसी मुसीबत में न फंसा दे. वह माँ को भरसक यह जताने की कोशिश करता कि वह केवल माँ के कहने से उसे ले आया है, उसका किन्ज़ान की किसी बात से लेना-देना नहीं है.
     लेकिन हर माँ जब यह जानती है कि उसके बच्चे को कौन सी चॉकलेट पसंद है, तो भला यह उस से कैसे छिप सकता है कि उस के बेटे को दुनिया का कौन सा इंसानी-बुत पसंद है. माँ ने अपना खेल खेला.
     लेकिन इस खेल में भी माँ हार गई. किन्ज़ान की गर्ल-फ्रैंड ने साफ़ कह दिया कि वह अपने मित्र की ख़ुशी को सँवारने के लिए उसकी मित्र है, उसके सपने को कुचलने के लिए नहीं. रस्बी ने अपने को एक बार फिर हताश देखा. अपमानित भी.
     उस आसमान से गिरते दरिया ने किन्ज़ान की दुनिया बस चुल्लू-भर की कर छोड़ी, जिसे किन्ज़ान तो पी जाना चाहता था, पर रस्बी को उसमें जिंदगी के  डूब जाने का अंदेशा था.अब रस्बी क्या करे ? क्या जवान बेटे के लिए ताबूत बना कर उसकी मौत का इंतज़ार करे, या फिर ऐसी घड़ी आने से पहले कुछ खाकर सो रहे ? तीसरा कुछ उसे दूर-दूर तक कहीं सपने में भी नहीं दीखता था. उसने क्या बेटे की ममी को किसी म्यूजियम में रखने के लिए उसे पैदा किया था ? और बेटा जिस तुफ़ैल में जी रहा था उसमें तो ताबूत में रखने या म्यूजियम में सजाने के लिए उसका मुर्दा भी हाथ आने की कोई गारंटी नहीं थी.
     रस्बी शायद नहीं जानती थी कि औलाद को जन्म देने का मतलब उसे अपने सपनों का वारिस बनाना नहीं  है.एक बार जिसे जिंदगी मिल गई, फिर उसके इस्तेमाल का हक़ भी उसे ही है. फिर रस्बी किन्ज़ान को सेना में भेज कर भी कहाँ महफूज़ कर रही थी ?
     ...सुबह किचन से कोई चीज़ उठाने के लिए किन्ज़ान ने जब भीतर झाँका, तो उसने देखा, तरकारी ऐसे ही पड़ी है, और माँ ने चाक़ू के ताबड़तोड़ वार अपनी कलाई पर कर लिए हैं ...[ जारी...]      

Sunday, March 18, 2012

सूखी धूप में भीगा रजतपट [ भाग 11 ]

     ...एक रात, जब किन्ज़ान आराम से अपने कमरे में सो रहा था, उसकी माँ रस्बी  चुपचाप अपने बिस्तर से उठी और किसी चोर की भांति किन्ज़ान के कमरे की ओर देखती हुई अपनी अलमारी की ओर बढ़ी. उसने कपड़ों के बीच रखी कोई छोटी काली सी वस्तु झटपट निकाल कर अपनी जेब में छिपाई, और सर पर अपना पुराना बड़ा हैट लगा कर घर से बाहर निकल गई.वह रात के लगभग तीन घंटे बिता कर लौटी. आने के बाद, अपने कमरे में ऐसे सो गई, जैसे कुछ हुआ ही न हो.
     सुबह जब किन्ज़ान ने आँखें खोलीं, तो वह चौंक गया. उसके चारों ओर चार अस्थि-पिंजर रखे थे, और इन नर कंकालों के ऊपर, चेहरे की जगह उसकी माँ रस्बी के चेहरे के  चित्र चस्पां थे.इतना ही नहीं, मेज़ पर रखे टेप पर मातमी धुन बज रही थी. किन्ज़ान बुरी तरह उदास हो गया. लेकिन उसने धैर्य न खोया, वह चुपचाप अपने दैनिक कामों में लगा रहा. उस दिन उसने लंच नहीं खाया. न ही रस्बी को उसने भोजन करते देखा.
     वह रात जिस तरह आई, उसी तरह बीत भी गई. किन्ज़ान का न दिल पसीजा, और न इरादा. वह उसी तरह अपनी तैयारी में लगा रहा.
     फिर एक दिन उसने अपनी माँ को अपने सामान की पैकिंग करते भी देखा. वह अच्छी तरह जानता था कि   उसकी माँ के पास घर छोड़ कर जाने के लिए कोई और दूसरी जगह नहीं है.एक बार के लिए उसका जिगर ज़रा सा हिला, क्योंकि उसने कभी भी अपनी माँ के लिए 'होम लैस' होकर घूमने की कल्पना नहीं की थी. उसके पिता, क्योंकि उसकी छोटी सी उम्र से ही सेना की नौकरी के कारण घर से बाहर रहे थे, उसे पिता के बारे में कोई कल्पना नहीं थी, किन्तु माँ को उसने किचन में भोजन बनाते,कमरे में सफाई करते, मार्केट से राशन लाते, उसके कपड़े और बिस्तर संवारते, और उसकी बेचैनी में दवाओं से तीमारदारी करते बचपन से देखा था, अतः वह सोच न पाया कि  ऐसे शख्स का गृह-विहीन होकर घूमना क्या होता है.वह उदासीन न रह सका, उसने चुपचाप जाकर माँ का वह बैग खोल कर पलट दिया, जिसमें उसने अपने कपड़े रखे थे. फिर चुपचाप आकर अपने काम में लग गया. माँ एक बार जोर से खीजी, लेकिन फिर सामान को उसी तरह पड़ा छोड़ कर घर के दूसरे कामों में लग गई.
     किन्ज़ान के कमरे में बीचों-बीच लोहे के तारों का वह ढांचा फैला पड़ा था, जिस पर रंगीन प्लास्टिक को मजबूती से मढ़ा जाना था. इस तरह तैयार हो रही थी वह जानलेवा बॉल, जिससे रस्बी की जिंदगी को हार जाने का खतरा था और किन्ज़ान की जिंदगी को जीत जाने की उम्मीद . वक्त तमाशबीन था.
     रस्बी को चार साल पहले की वह घटना अकस्मात् याद आई, जब एक दिन उसके घर पर न होने पर किन्ज़ान अपने साथ स्कूल में पढ़ने वाली एक लड़की को घर ले आया था.तेरह साल के नासमझ किशोर की समझ से उस दिन रस्बी बुरी तरह डर गई थी...[जारी...]           

Saturday, March 17, 2012

सूखी धूप में भीगा रजतपट [ भाग 10 ]

     किन्ज़ान तरह-तरह के ऐसे उपाय ढूंढता, जिससे पानी की तूफानी धारा में बहते समय उसकी हिफाज़त हो सके. वह बचपन से ही कुशल तैराक था. पानी में किसी मछली की ही तरह अठखेलियाँ करना उसके बाएं हाथ का खेल था. उसके जीवन का अब एक ही सपना था कि वह नायग्रा के बवंडर भरे पानी में छलांग लगाए, और बहता हुआ आसमानी ऊंचाई से नीचे आकर इस दिव्य प्रपात पर अपने प्रताप का परचम लहराए. झरने से वर्लपूल तक किसी जल-देवता की भांति आना अब उसका एक, केवल एक सपना रह गया था. इस सपने के लिए वह अपनी माँ से लड़ रहा था, अपनी जीविका से लड़ रहा था,और अपनी जिंदगी से लड़ रहा था.
     वह उन लोगों के बारे में भी सुन-जान चुका था जिन्होंने पहले कभी ऐसे प्रयास किये थे और वे असफल होकर इतिहास के शामियाने में सदा के लिए सो गए थे. ऐसे लोगों की दास्ताँ उसे डराती नहीं थी , बल्कि चौकन्ना बनाती थी, कि वह उनके द्वारा की गयी गलतियों को न दोहराए.उसे न तो नाम कमाने-प्रसिद्धि पाने का विचार था और न ही इस कारनामे से धन-दौलत पाने का. उसकी होड़ तो बस बहते पानी से थी, कि कैसे चांदी की उस ठंडी धारा के वेग पर सवार होकर वह लहरों की आँधियों के झंझावात पर शिकंजा कसे.फुहारों के करंट-भरे अभिषेक के लिए उसका जवान मस्तक तड़पता था.
      सत्रह  से भी कम उम्र में ऐसा तूफानी  सपना कुदरत किसी शीशे के बदन में भला कैसे भर सकती है, इस पर वह कद्दावर महिला, रस्बी हैरान थी, जिसने पति को सैनिक के रूप में खो देने के बावजूद बेटे के लिए भी सेना का वही पथरीला रास्ता चुना था.बेटे के उसकी बात अनसुनी कर देने के बाद वह किसी भी सीमा तक जाकर बेटे को रोकना चाहती थी. उसे न मृत्यु से डर लगता था, न जिंदगी से प्रेम था, वह तो केवल बेटे के भविष्य को "खेल"में गवाने के खिलाफ थी. देश को सिपाही की ज़रुरत होती है, जुनूनी की नहीं, यह उसकी सोच थी.
     अपनी सनक-भरी खोजों के दौरान किन्ज़ान ने जान लिया था कि वेग भरी धारा में लकड़ी का सहारा बहुत निरापद नहीं रहेगा, क्योंकि लकड़ी से बनी कई कश्तियाँ अब असफल जांबाजों की बीती कहानियों का हिस्सा थीं. प्लास्टिक के उपयोग का युग आ गया था. विमानों से पैराशूट अब सफलता से काम में लिए जा चुके थे. केवल यह उपाय महंगे थे, और किन्ज़ान की जुनूनी-उमंग का कोई प्रायोजक नहीं था. सफलता के बाद तो सर-आँखों पर बैठाने के लिए दुनिया दौड़ती है, सफलता का सपना लिए दौड़ते युवक के साथ भला कौन आता ? वह भी तब, जब जन्म देने वाली माँ खुद लट्ठ लेकर सपने के यायावर के पीछे पड़ी हो.
     किन्ज़ान के दोस्तों ने पहले तो उसके मंसूबों को हवा में उछाला, लेकिन धीरे-धीरे दोस्ती के दालान में संजीदगी की नर्म घास उगने लगी, वे तरह-तरह से उसकी मदद को आगे आने लगे. धन की कमी के बादल छिन्न-भिन्न होने लगे. जिस पवन-वेग से उड़ने वाले घोड़े पर उनका दोस्त सवार हो, उसे ललकार कर हरी झंडी दिखाने का भी तो अपना एक रोमांच है. किन्ज़ान को "अपने दिन"नज़दीक आते दिखने लगे...[जारी...]       

सूखी धूप में भीगा रजतपट [ भाग 9 ]

     ...बच्चों ही नहीं, उनके माता-पिता को भी नाना बहुत पसंद आये. बरसों पहले स्कॉटलैंड  से आकर ब्राजील में बसा उनका परिवार बाद में बफलो का ही होकर रह गया. वे बिना किसी संकोच के बताते थे कि बचपन में वे उत्पाती हिंसक बालक थे. उन्हें हर किसी को दुःख में देखने से ही आनंद मिलता था. लेकिन पुरानी वस्तुओं से उनका मोह पागलपन की हद तक था.हर पुरानी वस्तु उन्हें बात करने योग्य बुज़ुर्ग जैसी लगती थी. वे कहते- यदि किसी बूढ़े ने चालीस साल तक किसी छड़ी के सहारे अपने कदम बढ़ाये हैं,तो बूढ़े के मरने के बाद निश्चय ही वह छड़ी बूढ़े के बारे में खूब बातें करेगी, बशर्ते कोई उसकी ज़ुबान समझने वाला हो.किसी बुज़ुर्ग स्त्री का बरसों पुराना चश्मा उसकी आँखों की  रामकहानी क्यों नहीं जानेगा, वे सुनने वालों से ही पूछते थे.
     उनका लाल सुर्ख चेहरा बिना हड्डियों के बना कोई बुत दीखता था.
     ग्रोव सिटी के नज़दीक उनकी लम्बी-चौड़ी ज़मीन थी, जो उन्होंने बनाना रिपब्लिक कंपनी को सस्ते में केवल इसलिए देदी, क्योंकि कंपनी ने नई इमारत बनवाने  के लिए उसकी खुदाई करते समय उसमें मिलने वाले सारे ताबूत उन्हें वापस लौटाने का आश्वासन दिया था. नाना कहते थे कि अब उनके खजाने में सदियों पहले गुज़रे कई  इंसानों की रूहें हैं.
     नाना के मुंह से सोमालिया के किन्ज़ान की कहानी सुन कर तो सभी दंग रह गए.किन्ज़ान बहुत छोटी उम्र से ही नायग्रा के पानी को गिरते देख निहारा करता था. वह उस विशालकाय झरने को उसी तरह देखता रहता था जैसे  बच्चे सिनेमा या टीवी के परदे को देख कर सुध-बुध खो बैठते हैं. उसे वह गिरते पानी का दैत्याकार पर्दा चाँदी के भीगे रजतपट के मानिंद लगता था, जो उसे जादू की हद तक लुभाता था.कभी दूर-दराज की अमेरिकी सेना में तैनात किन्ज़ान के पिता की मौत की खबर आने पर भी उसने वहां आकर घंटों बैठना नहीं छोड़ा था. किन्ज़ान की माँ रस्बी चाहती थी कि अब किन्ज़ान भी सेना में भर्ती हो जाये.पंद्रह साल के किन्ज़ान को बेमन से माँ का कहा करना पड़ा. 
     किन्तु दूसरों के मन की बात इन्सान मान तो सकता है, पर जिंदगी भर मानता रह नहीं सकता. किन्ज़ान छिपके सेना से भाग आया. उस पर केवल एक ही धुन सवार थी कि वह नायग्रा की ऊंचाई से पानी में बह कर नीचे आएगा.उसने दर्ज़नों काम किये. वह धन जोड़ता और फिर इस जोड़-तोड़ में लग जाता कि कैसे वह नायग्रा फाल्स को पार करने लायक सुरक्षित रक्षा-कवच बनाये. उसकी माँ रस्बी इसके सख्त खिलाफ थी. वह उसे हर तरह से समझा चुकी थी कि वह यह पागलपन छोड़ दे. बेटे की जिद ने उसे भी वहशीपन की हद तक जिद्दी बना दिया था. वह दुनिया का हर वह उपाय करने को तैयार थी जो उसके बेटे से ऐसी धुन छुड़ा दे. उसने बेटे को घर में कैद करके रखा, किराये के हिंसक चौकीदारों से उसे नायग्रा के आसपास न फटकने देने का खर्चा उठाया, बेटे को बफलो से दूर लेजाने का प्रयास किया.
     पर जैसे-जैसे माँ अपने मन की करती, वैसे-वैसे बेटे का अपने मन की करने का जुनून और बढ़ता...[जारी...]             

Friday, March 16, 2012

सूखी धूप में भीगा रजतपट [ भाग 8 ]

     बड़ी बहन ने तुरंत पुलिस को फोन करके सूचना दी. छोटी ने बच्चों की माँ को संभाला जो अब धैर्य खोकर रोने लगी थी. अफ़रा-तफ़री के छह मिनट मुश्किल से गुज़रे होंगे, कि बाहर पुलिस की गाड़ी रुकने की तेज़ आवाज़ आई.किसी को इस बात पर अचम्भा करने का समय नहीं मिला कि सूचना पाते ही बिजली की गति से पुलिस कैसे आ गई, क्योंकि अचम्भा सभी को इस बात पर हो रहा था, कि गाड़ी में एक पुलिस अधिकारी के साथ उस परिवार का लाडला बेटा मौजूद था. सभी हक्के-बक्के रह गए. फोन करने वाली युवती से हाथ मिला कर पुलिस अधिकारी ने गाड़ी की ओर नज़र डाली ही थी कि सपाट से चेहरे से बच्चा गाड़ी से नीचे उतर कर खड़ा हो गया. माँ ने दौड़ कर उसे अपने से चिपटा लिया. छोटी बच्ची जो अब तक केवल उदास थी, अब रोने लगी. पर उसके बिसूरने पर किसी ने शायद यह सोच कर तवज्जो नहीं दी कि यह शायद ख़ुशी के आंसू हों.
     अब वे दोनों युवतियां पुलिस अधिकारी की बात पर ज़ोर-ज़ोर से हंस रही थीं.शौचालय के भीतर मरम्मत का काम चल रहा था, जिसके चलते छत से एक ट्रॉली पाइपों की जांच के लिए भीतर उतारी गई थी. इधर माँ मुख्य द्वार पर खड़ी रही, उधर बेटा वहां ट्रॉली पड़ी देख कर उस पर चढ़ गया. बच्चा कुछ समझ पाता इसके पहले ही वह छत पर पहुंचा दिया गया. ट्रॉली-मैन ने उसे तुरंत परिसर में घूम रही पुलिस के सुपुर्द किया. युवतियों की हंसी सब के चेहरे पर परिहास-भरा सुकून बन कर कौंधी.
     धूप की तेज़ी अब धीरे-धीरे कम हो रही थी.तेज़ चलती गाड़ी में सभी, कुछ उनींदे से थे.बच्चों के पिता ने न जाने क्या सोचते हुए अब फिर से वार्तालाप की कड़ी जोड़ी. शायद उन्हें सिमी ग्रेवाल की कुछ फिल्मों का नाम याद आ गया था. वे बताने लगे कि भारत के एक मशहूर डायरेक्टर ख्वाज़ा अहमद अब्बास ने रेगिस्तान में पानी की कमी को एक फिल्म "दो बूँद पानी" में दर्शाया था, जिसमें सिमी ग्रेवाल ने काम किया था.नाम सुनते ही दोनों युवतियों के चेहरे पर ख़ुशी छलकी, क्योंकि यह वही फिल्म थी जो उन्होंने देखी थी.इसी फिल्म ने उनके मन में ऐसी धारणा बना दी कि भारत में पानी का अभाव है.
     जब वे लोग बफलो  पहुंचे, रात हो चुकी थी.दोनों बहनों ने अब उन्हें होटल में नहीं ठहरने नहीं दिया. उस परिवार को भी यही निरापद लगा कि वे उन लोगों के साथ ही ठहरें. रात को खाना खाने के बाद बच्चे तो जल्दी सो गए, किन्तु उनके पिता युवतियों के नाना से जल्दी से जल्दी मिलना चाहते थे. फोन पर बात हुई और उनसे सुबह मिलने का समय ले लिया गया. रात देर तक बातें करने से दोनों को बहुत सी जानकारी मिली.
     बच्चों के पिता को उन बहनों ने अपने नाना के काम के बारे में भी बताया. नाना को पुरानी चीज़ें जमा करने का शौक था. वे खुद भी तरह-तरह की चीज़ें बनाते थे. उन्होंने बड़ी मेहनत से एक बेहद सुन्दर घोंसला बनाया था, जिसे उन्होंने अपने घर के सामने एक पेड़ पर सजा दिया था. वे कहते थे कि यह अद्भुत मायावी घोंसला है, जिसमें एक दिन अपने आप रंगीन अंडे आ जायेंगे. उन्हें उस दिन का हमेशा इंतज़ार रहता था. उनके अलावा और कोई नहीं जानता था कि अंडे कहाँ से आयेंगे. बच्चों के पिता को इन बातों में केवल इतनी ही दिलचस्पी थी कि वे उनके बच्चों पर आये संकट को दूर कर सकें. दिन भर की थकान भूल कर वे सुबह के इंतज़ार में थे...[जारी...]
                 

Thursday, March 15, 2012

सूखी धूप में भीगा रजतपट [ भाग 7 ]

     इस यात्रा में अपनी दो शुभचिंतक स्थानीय युवतियों के साथ होने से पूरा परिवार खुश था. वे सभी तरह के भय से मुक्त हो चुके थे और अब आपस में खुलकर बातें कर रहे थे. दोनों बच्चे कार की खुली खिड़की से मनोरम अमेरिकी दृश्यों का आनंद ले रहे थे.कार एक दिशा में भागी जा रही थी और रास्ता जैसे दूसरी दिशा में. कभी-कभी बादल बिलकुल सड़क पर चले आते और बच्चों को लगता कि ज़मीन आसमान में गहरी दोस्ती है.
     दोनों बहनों में मात्र चार मिनट का अंतर था, उनकी उम्र में. लेकिन छोटी बहन बड़ी को सम्मान देने में इन चार मिनटों का पूरा मोल चुका रही थी.ज़्यादातर बातें बड़ी बहन ही पूछ रही थी, जिस के दिल पर बच्चों पर बेवजह चिल्ला पड़ने का अपराध-बोध अभी तक हावी था.
     - आप सिमी को जानते हैं ? युवती ने बच्चों के पिता से पूछा तो वे एकाएक सकपका गए.
     छोटी बहन भी जिज्ञासा से इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए बच्चों के पिता का मुंह ताकने लगी. लेकिन कोई उत्तर नहीं मिला.
     -सिमी ग्रेवाल...इंडियन और हॉलीवुड ऐक्ट्रेस, अब जैसे युवती ने और क्लू देने के लिए कहा.
     -ओह, हाँ.. हाँ...पर वो अब ज्यादा फेमस और सक्रिय नहीं है.यह सुन क़र दोनों ही युवतियों के चेहरे पर थोड़ी मायूसी आई.युवतियों ने उन्हें बताया कि वे भारत के बारे में केवल दो बातें ही जानती हैं. एक तो यह कि वहां पानी बहुत कम है, और दूसरे वहां सिमी ग्रेवाल रहती है, जिसकी एक फिल्म उन्होंने कभी पहले देखी है.
     बच्चों के पिता अब तपाक से बोल पड़े- पानी कम नहीं है, केवल देश का एक भाग ऐसा है जहाँ रेगिस्तान है. वहां बारिश नहीं होती, और चारों ओर रेत के बड़े-बड़े टीले हैं.वैसे तो भारत के तीन ओर समुद्र है, कई बड़ी नदियाँ भी हैं. चेरापूंजी में तो... बच्चों के पिता ने देश की साख बचाने के लिए जैसे अपने बचपन में पढ़ा भूगोल का सारा ज्ञान उंडेलना चाहा.
     इससे पहले कि युवतियां और कोई प्रतिक्रिया देतीं, बच्चों की माता ने पति को प्यास लगने का इशारा किया. संयोग से सर्विस क्षेत्र भी निकट आ रहा था. बीच में कॉफ़ी पीने के लिए गाड़ी को रोक लिया गया.
     सभी एक केफेटेरिया में दाखिल होने लगे. लड़के की माँ उसे शौचालय लेजाने के लिए पीछे रुक गईं. छोटी बच्ची ने इतना शानदार शोरुम देखा तो उसकी आँखों में भी कोई फरमाइश मचलने लगी.
     बातें भी चलती रहीं, और कॉफ़ी भी आकर बिलकुल ठंडी हो गई. लेकिन लड़के और उसकी माँ का इंतज़ार अभी भी था. अब बच्चों के पिता ने उठ के देखने का मन बनाया ही था कि बदहवास सी दौड़ती माँ एकाएक दाखिल हुईं. वह बुरी तरह घबराई हुई थीं, और बार-बार कह रहीं थीं कि बेटा न जाने कहाँ चला गया. सब चौंक पड़े. ऐसा कैसे हो सकता है ? शौचालय के दरवाजे पर माँ खड़ी रहे और बेटा भीतर से गायब हो जाये ? कोई और दूसरा दरवाज़ा भी तो नहीं था. दोनों युवतियां भी उनके साथ घबरा क़र देखने के लिए दौड़ीं...[ जारी...]      

Wednesday, March 14, 2012

सूखी धूप में भीगा रजतपट [ भाग 6 ]

.... लड़की के चिल्लाने से बच्चों के माता-पिता एकदम घबरा गए, और सर पकड़ कर पास के सोफे पर निढाल होकर गिर पड़े. दोनों छोटे बच्चे भी सहम कर पीछे हटे. अब माता-पिता को यह आशंका होने लगी कि पिछली रात से ही उनके बच्चों पर कोई न कोई मुसीबत आई हुई है. वे किंकर्तव्य-विमूढ़ हो गए. बच्चों की माँ की आँखों से आंसू भी आने लगे.बच्चे दौड़ कर पिता से लिपट गए.
     तभी बिजली की सी गति से काउंटर के उस ओर से लगभग दौड़ कर एक बूढ़ी महिला आई, और जल्दी-जल्दी बच्चों के पिता को बताने लगी कि उन लोगों को गलत-फ़हमी हुई है. उसने बताया कि उनकी कम्पनी में यहाँ दो जुड़वां बहनें काम करती हैं. एक बहन उन्हें नाव में लेकर गई थी, जिसे बच्चे जान गए.लेकिन यह वह नहीं है,बल्कि उसी सूरत की उसकी दूसरी बहन है. बच्चे इसे पहचान कर मिले, पर इसने उन्हें नहीं पहचाना, इसीलिए घबरा गई.
     इस स्पष्टीकरण के बाद बच्चों के माता-पिता को काफी राहत मिली. उन्होंने प्यार से बच्चों के सर पर हाथ फेरा और आइस-क्रीम पार्लर की ओर बढ़ गए.
     लेकिन तभी उस लड़की ने बूढ़ी महिला के कान में जल्दी-जल्दी कुछ कहा, जिसे सुन कर बूढ़ी महिला गश खाकर गिरने लगी. एक बार फिर से हड़कंप सा मच गया, लड़की ने महिला को संभाल कर सोफे पर लिटाया. कुछ और कर्मचारी भी महिला की ओर दौड़े. बच्चों के पिता ने आइस-क्रीम पार्लर से यह द्रश्य देखा तो वे भी दौड़े. बच्चे अपनी माता के साथ चिपके वहीँ आइस-क्रीम खाते रहे. महिला को होश में लाने की कोशिश की जाती रही.
     आधे घंटे के बाद समीप के एक रेस्तरां में बच्चे, उनकी माँ और बूढ़ी महिला बैठे कुछ खा रहे थे और बाहर लॉन में बच्चों के पिता और वह लड़की कोई गंभीर  वार्तालाप करने में मशगूल थे.
     लड़की ने उन्हें बताया कि वह और उसकी बहन यहाँ नौकरी करती हैं और बफलो शहर में रहती हैं. लड़की ने बच्चों के पिता को जो जानकारी दी, उस से उनके पाँव तले ज़मीन खिसक गई. लड़की कह रही थी कि वह बच्चों से अनजान होने के कारण उनके निकट आने पर नहीं चीखी थी, बल्कि उन बच्चों के सर पर मुसीबत को खेलते देख कर चीखी थी. उसने बताया कि वह बच्चों को देखते ही पहचान गई कि उनपर किसी "आत्मा" का प्रभाव पड़ा हुआ है, और बच्चे पूरी तरह उस शक्ति की गिरफ्त में हैं.
     लड़की के नाना बफलो में ऐसी ही दैवी शक्तियों के अस्तित्व पर शोध कर रहे थे, और उनकी लम्बे समय तक सहायिका रहने के कारण वह भी इस बारे में थोड़ी-बहुत जानकारी रखती थी.लड़की की बातों पर बच्चों के पिता को पूरा विश्वास हो चला था. लड़की ने उन्हें सुझाव दिया कि वे लोग उन बहनों के साथ बफलो चलें, और उनके नाना से अवश्य मिलें. दोनों बहनें अगले दिन सप्ताहांत होने के कारण घर जाने वाली थीं.
     अगली सुबह एक कार से वे सभी बफलो की ओर जाने वाली सड़क पर निकल पड़े. [जारी...]      

Tuesday, March 13, 2012

सूखी धूप में भीगा रजतपट [भाग 5 ]

     शायद वह दिन उस परिवार के लिए अचंभों का दिन था. नन्ही बिटिया ने जैसे ही फलों के उस डिब्बे को हाथ लगाया, डिब्बा अचानक जलने लगा. पहले कुछ चिंगारियां निकलीं, फिर उसमें से लपटें निकलने लगीं. लड़की के पिता ने दौड़ कर वेटर को बुलाने वाला इमरजेंसी कॉल स्विच दबाया और बेटी को हाथ के झटके से जलते हुए डिब्बे से दूर किया. लड़की के माता-पिता दोनों पसीने में नहा गए.
     झटके की आवाज़ के साथ कमरे का दरवाज़ा खुला और उसमें घुसे दोनों कर्मचारी मुस्तैदी से आग को बुझा कर मेज़ के इर्द-गिर्द आग लगने का कारण खोजने लगे.कोई कारण न पा कर वह एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे. जब वे बाहर निकलने को हुए, बच्चों के पिता ने उन्हें इशारे से ट्रॉली बाहर लेजाने को कहा.
     कुछ देर की  ऊहापोह के बाद बिना कुछ खाए-पिए परिवार सो तो गया पर माता-पिता, दोनों में से किसी की आँखों में नींद का नामोनिशान नहीं था.न जाने रात के किस पहर में जाकर उन्हें नींद आई. 
     सुबह ज़ल्दी ही वे उठ गए. दोनों बच्चों को भी जगाया गया. पर दोनों बच्चों पर रात की घटनाओं का कोई असर नहीं था. वे आम दिनों की तरह उठे. यहाँ तक कि लड़के को तो अब ये याद भी नहीं था कि रात को क्या हुआ. माता-पिता ने याद दिलाना मुनासिब भी नहीं समझा और वे रोजाना की तरह तैयार होकर निकल गए. जो कुछ हुआ, वह रात के साथ ही बीत गया था. अब यदि कहीं उसके चिन्ह थे तो केवल माता-पिता की मानस-कुंडली में थे. 
     उस परिवार का आज वापस लौट कर जाने का कार्यक्रम था. वे अब कुछ घंटों की यात्रा करके एक अन्य मशहूर पर्यटन स्थल देखने जाने वाले थे.
     वे जब यहाँ पहुंचे तो दोपहर लगभग बीतने को थी.  चारों ओर से बेहद शांत दिखाई देने वाली इस जगह का नज़ारा किसी बड़े से होटल जैसा था. किन्तु इसमें दाखिल होते ही पता चला कि इस जगह पर भूमि के नीचे एक पूरा पाताल लोक मौजूद है.टिकट लेकर लिफ्ट से जब वे लोग नीचे पहुंचे, तो आँखों के साथ-साथ मन को भी ठंडक मिली.  ज़मीन के नीचे बहुत प्राचीन प्राकृतिक गुफाएं थीं, जिनके तल में बर्फीला ठंडा पानी बह रहा था.इन गुफाओं में कुछ भी मानव-निर्मित नहीं था. पत्थरों और चट्टानों को ज़मीन के नीचे बहते पानी ने ही काट-काट कर इस सुरम्य स्थान को बनाया था. गुफाओं के इस अद्भुत गुंजलक में लकड़ी की छोटी-छोटी नौकाओं में बैठ कर दुनिया भर के पर्यटक घूमने का आनंद ले रहे थे. भारतीय परिवार भी यहाँ के आनंद में जैसे कल की अजीबो-गरीब घटनाओं को भुला बैठा था. यहाँ की चट्टानों में पत्थर पर पानी के प्रहार से बने एक से एक अद्भुत अजूबे फैले पड़े थे. नौकाओं को चलाने  वाले स्थानीय युवक-युवतियां पर्यटकों के लिए गाइड का कार्य भी कर रहे थे. 
     यह परिवार जिस नौका में बैठा था, उसे एक लड़की चला रही थी. लड़की ने उन्हें काफी-कुछ बताया था. यात्रा पूरी होते ही जब वे नौका से उतरने लगे, तब लड़की ने दोनों बच्चों के गाल थपथपा कर उनका नाम भी पूछा था. उन्हें उतार कर लड़की दूसरे फेरे के पर्यटकों को नौका में बैठा कर फिर से गुफाओं में चली गई.
     लिफ्ट में चढ़ कर जब वे ऊपर आये, तो लिफ्ट का दरवाज़ा खुलते ही दोनों बच्चे तेज़ी से बाहर निकले. सामने अचानक फिर उसी  लड़की को देख कर वे दोनों उसी तरफ दौड़े, और उस से लिपट गए.लड़की जोर से चिल्लाई, और उन्हें झटकते हुए पीछे हटी. माता-पिता को कुछ भी समझ में नहीं आया, कि यह क्या हुआ...[जारी...]           

Monday, March 12, 2012

सूखी धूप में भीगा रजतपट [ भाग 4 ]

     चारों में से किसी की रूचि रेस्तरां की साज-सज्जा को देखने में नहीं थी. शायद सुबह से घूमते रहने के कारण थके हुए भी थे और भूखे भी. लगता था जैसे जल्दी से खाना खाकर होटल के अपने कमरे में लौटना और सो जाना चाहते हों. वेटर द्वारा रखा गया मेनू भी सभी ने अनमने भाव से देखा. बच्चों के दिल की बात माँ समझती है, शायद इसी ख्याल से पिता ने कोई दखल नहीं दिया, और माँ ने सभी के लिए साधारण दक्षिण भारतीय भोजन का आदेश दे दिया.खाना आने में ज्यादा देर नहीं लगी.
     तभी एक ऐसी घटना घटी कि बच्चों के माता-पिता दोनों बुरी तरह चौंक गए. सात वर्षीय पुत्र ने खाने की थाली एक ओर सरका कर पानी से भरा बड़ा जग हाथ में उठाया और उसे सीधे मुंह से लगा कर गटागट पानी पीने लगा. तीनों एक साथ चौंके, क्योंकि बेटा इतना नासमझ नहीं था जो होटल में जग को सीधे मुंह लगा कर पानी पिए. आखिर वह एक अच्छे  स्कूल में पढ़ने वाला बच्चा था.उसकी आदतें भी बिगड़े बच्चों जैसी नहीं थीं .फिर घोर अचम्भे की बात यह थी कि उस छोटे से बच्चे ने लगभग तीन लीटर पानी एक सांस में पी डाला. माँ, बाप और हमउम्र बहन हैरानी से उसे देखते रह गए. एक वेटर के आ जाने, और आश्चर्य से लड़के को देखते रहने के कारण पूरा परिवार शर्मिंदा भी हुआ. पर वेटर को वह घटना हैरानी से ज्यादा मनोरंजन की लगी. वह जग उठा कर उसमें फिर से पानी भर कर लाने के लिए दौड़ा.
     लेकिन जब तक वेटर पानी लेकर आया तब तक देर हो चुकी थी, बच्चे के माँ-बाप सारा माजरा समझते, इसके पहले ही बच्चे की आँखें बंद हो गईं, और वह भरी नींद के बोझ से एक ओर लुढ़क गया. माँ ने तुरंत उसे अपने पास खींच कर अपनी गोद में लिटा लिया और अपने आँचल से हवा करने लगी.नन्ही बच्ची इस अकस्मात् घटी घटना पर भयभीत हो गई. 
     खाना आया, पर बिना किसी से कुछ भी कहे  वह परिवार वहां से उठ गया.खाना किसी ने न खाया. बिल चुका दिया गया.सोते हुए बेटे को पिता ने अब अपनी गोद में उठा कर कंधे से लगा लिया. बीच-बीच में माँ बेटे को जगाने की कोशिश ज़रूर करती, पर बेटा जैसे बेहोशी की गहरी नींद में था. 
     जिस होटल में वह परिवार ठहरा था, वह ज्यादा दूर नहीं था. वे लोग होटल में लौट गए. कमरे में पहुँच कर लड़के को बिस्तर पर लिटा दिया गया. बच्चा केवल गहरी नींद में ही था, और किसी तरह से उसकी तबियत नहीं बिगड़ी थी. उसे आराम से सोते देख कर अब परिवार का भय और विस्मय थोड़ा कम हुआ, साथ ही भूख ने भी दस्तक दी.रात भी गहरी हो चली थी. 
     माँ ने यह तय किया कि कुछ फल मँगा लिए जाएँ.नाश्ते का थोड़ा सामान उनके पास पहले से भी मौजूद था. थोड़ी ही देर में एक वेटर एक छोटी सी ट्रॉली लेकर कमरे में प्रविष्ट हुआ. ट्रॉली पर जूस के गिलासों के साथ एक सुन्दर से डब्बे में कुछ फल भी थे. छोटी बच्ची ने उस सुन्दर डिब्बे को देखा तो खुश होकर तुरंत ट्रॉली के पास चली आई. इतना सुन्दर डिब्बा उसने पहले कभी-कहीं देखा न था. ऐसा लगता था, मानो डिब्बा क्या था, किसी चिड़िया के घोंसले में तिनकों के बीच ताज़े फल रखे थे. [ जारी...]             

Sunday, March 11, 2012

सूखी धूप में भीगा रजतपट [ भाग 3 ]

     कुछ महीने ही बीते होंगे, कि टर्की के एक फल व्यापारी ने अपने घर के नज़दीक एक प्रिंटिंग-प्रेस में कदम रखा. व्यापारी बेहद उत्साहित दिखाई दे रहा था. उसका बेटा कुछ दिन पहले ही दुबई से प्रबंधन की पढ़ाई पूरी करके लौटा था.अब बाप-बेटे ने मिल कर लम्बी-चौड़ी प्लानिंग करके अपने एक्सपोर्ट कारोबार को विस्तार देने की योजना  बनाई थी.फल-व्यापारी अपने पैकिंग मेटेरियल की डिज़ाइन लेकर उसे छपवाने आया था. प्रेस ने उसे कई आकर्षक डिब्बों के नमूने दिखाए. इन्हीं डिब्बों में एक बेहद खूबसूरत तिनकों से बने डिब्बे का नमूना भी था. यह देखने में ऐसा लगता था, मानो किसी चिड़िया के बड़े से घोंसले में ताज़े फल रख कर पैक किये गए हों. इस तरह की पैकिंग से फल प्राकृतिक और पर्यावरणीय अभिरक्षा में रखे गए प्रतीत होते थे. इतना ही नहीं, बल्कि छापे-खाने के मालिक ने बताया कि यह डिज़ाइन बिलकुल मौलिक है, इसका प्रतिरूप कहीं उपलब्ध  नहीं है क्योंकि  प्रेस द्वारा  उस डिज़ाइन का पेटेंट करा लिया गया है.
     तिनकों से बने डिब्बे का यह नमूना उसी फोटो के आधार पर तैयार किया गया था, जिसे फल-व्यापारी की बेटी कभी अपनी अमेरिका यात्रा के दौरान खुद खींच कर लाई थी.इस डिब्बे की खासियत यह थी कि इसमें रखे फल पेड़ पर लगे फलों की तरह ही दीखते थे, मानो उन्हें वहीँ समेट कर तिनकों में लपेटा गया हो.व्यापारी को यह डिब्बा खूब पसंद आया, और चंद दिनों बाद वह उसके द्वारा दुनिया-भर में भेजे जाने वाले फलों की पहचान ही बन गया. डिब्बे को देख कर ऐसा आभास होता था, जैसे ताज़े फलों की खुशबू तक डिब्बे में महफूज़ हो. 
     दुनिया चल रही है. यह न केवल चल रही है, बल्कि इसकी रफ़्तार भी दिन-दूनी रात चौगुनी  गति से बढ़ रही है.इसी का नतीजा था कि पतझड़ के बाद बसंत, और बसंत के बाद ग्रीष्म ऋतु ने जब दस्तक दी तो बफलो में आने वाले पर्यटकों की संख्या भी बेतहाशा बढ़ गई. आने वाले विदेशी बढ़े तो अमेरिका के इस नगर में फलों की खपत भी बढ़ गई. पर्यटक चाहे जहाँ से आयें, वे पानी की इस अलौकिक खान का नज़ारा देखने ज़रूर आते. नायग्रा देखने आते तो उन्हें उस इमारत में भी आना पड़ता जहाँ से बुकिंग के बाद उनकी इस दुर्दमनीय झरने को देखने की ललक-भरी यात्रा शुरू होती. इमारत के स्टोर्स और केफेटेरिया माल और मनुष्यों से लबालब रहने लगे. 
     रात के दो- तीन बजे तक  पीले और सफ़ेद रंग की  सुन्दर सी लॉरी  इमारत की ऊपरी मंजिल पर फल के डिब्बों के अम्बार लगा देती . तीन मजदूर लड़के लिफ्ट से ढो-ढो कर न जाने कब तक उन डिब्बों को लाते रहते .इस तरह सैलानियों की आवभगत का इंतजाम करते-करते बफलो की उस इमारत में न दिन दीखता न रात. रात को भी पर्यटकों की आँखों को लुभाने वाली रंग-बिरंगी रौशनी शहर भर में फैली रहती. झरने के आसपास तो विशेष रूप से. और झरने को चारों ओर से घेरता बगीचा तो ऐसे जगमगाता जैसे स्वर्ग से इन्द्र टॉर्च डाल कर देख रहे हों कि  कहीं धरती पर मेरे लोक से भी लुभावना मंज़र तो नहीं खड़ा हो गया ? 
उसी बफलो में एक रात एक जोड़ा अपने दो छोटे-छोटे बच्चों के साथ एक भारतीय रेस्तरां में खाना खाने घुसा.[जारी...]

Friday, March 9, 2012

सूखी धूप में भीगा रजतपट [ भाग 2 ]

    नायग्रा फाल्स के समीप स्थित इसी बफलो विश्वविद्यालय के मुख्यद्वार के पास कुछ युवाओं ने पिछली शाम  अपने कैमरे से फोटो खींचते समय एक वृक्ष की पतली सी टहनी पर किस नज़ारे को कैमरे में कैद कर लिया, ये शायद वे भी नहीं जानते थे. वैसे भी युवा पर्यटक घूमते हुए जिन कोणों को क्लिक करते हैं, उनमें ज़्यादातर चेहरे ही होते हैं.भीड़-भरे पर्यटन-स्थलों से एक दूसरे के कैमरों में दर्ज होकर न जाने क्या-क्या कहाँ से कहाँ तक पहुँच जाता है.बाद में इन्हीं में से कुछ चीज़ें तरह-तरह से सामने आ जाती  हैं, और प्रसिद्ध हो जाती हैं.पेड़ की उस टहनी पर एक छोटा सा तिनकों से बना घर था, जो यदि किसी चिड़िया का बनाया हुआ होता तो घोंसला कहलाता, पर वह घर ही था , क्योंकि उसे किसी चिड़िया ने नहीं बल्कि इंसानों ने बनाया था, मात्र सजावट के लिए.
     ऐसा बहुत कम ही हो पाता था कि किसी आने-जाने वाले का ध्यान उस पर जाये, लेकिन अनजाने ही वह किसी कैमरे में दर्ज हो गया. आपस में बातें करते हुए न जाने कितने लोग रोज़ वहां से गुजरते थे. उन लोगों में न जाने कहाँ-कहाँ से आये लोगों का शुमार था.
     नायग्रा के गिरते हुए पानी का नज़ारा देखने के लिए पहले एक लिफ्ट से ज़मीन से काफी नीचे जाना होता था, फिर शिप में बैठ कर लहरों पर किसी राजहंस की सी शान और गति से अथाह पानी के गिरते दरिया से सामना होता था. पानी का वेग और मात्रा  देख कर लोगों को समुद्र के भीतर बने किसी लोक का अहसास होता था. असीमित पानी के इस दर्शन से पहले या बाद में आसपास के इलाके को घूमना लोगों को शायद इसीलिए सुहाता था. और गुज़रे समय के ऐसे ही क्षणों में कई लोगों ने इस उफनते मचलते सागर को नापने के तरह-तरह से प्रयास किये थे.
     कहते हैं कि ऐसे ही स्थानों पर, जहाँ इंसानी किस्म की कोई सीमा नहीं होती, "आत्माएं" रहना पसंद करती हैं. कहा जाता है कि संसार में करोड़ों लोग आते-जाते रहते हैं, फिर भी कुछ लोग दुनिया में आने के बाद विभिन्न कारणों से यहाँ से जाने से रह जाते हैं, जिनमें सुख-दुःख-अन्याय-जिज्ञासा-चमत्कार-दुर्भाग्य-सौभाग्य-संशय आदि विभिन्न कारणों से दुनिया में ही रह जाने वालों का समावेश होता है. शरीर को तो प्राकृतिक रूप से मिला समय पूरा होने पर वापस मिट्टी में मिलना होता है, लेकिन प्राण कई बार इस चक्र से उछट कर संसार में बने रह जाते हैं, और फिर मायावी शक्तियों से अपना अधूरा अभीष्ट पूरा करते हैं. इन्हें ही कहीं कोई भूत-प्रेत कहता है तो कोई आत्मा.
   एक पर्यटक के कैमरे में कैद पेड़ की टहनी पे लटके घर ने सबको असमंजस में डाल दिया.[ जारी...]       

सूखी धूप में भीगा रजतपट [भाग 1 ]

     उस समय कुल ग्यारह लोग थे उस कक्ष में. लेकिन वे पर्यटक थे और अन्य देशों से आये थे. उनकी भाषाएँ भी अलग-अलग थीं, और शायद उनके सोच भी. लेकिन सब एक ही दिशा में सोच रहे थे.ज़्यादातर लोगों का ख्याल यही था कि ये आत्म-हत्याएं ही थीं, और किसी भी कीमत पर इन्हें रोका जाना चाहिए था. कौन जाने रोकने की कोशिशें हुई भी हों, लेकिन अब वे सब किसी युद्ध के दिवंगत योद्धाओं की तरह इतिहास में दर्ज थे.
     अमेरिका के एक छोटे से नगर बफलो  के एक मुख्य मार्ग पर बना यह स्मारक- संग्रहालय उन लोगों की कहानी कह रहा था जिन्होंने कभी विश्व-विख्यात जल-प्रपात 'नायग्रा फाल्स' के अत्यधिक ऊँचाई से गिरते पानी में ऊपर से बह कर नीचे आने की खौफनाक कोशिश की थी. कोई नहीं जानता था कि इस दुस्साहस से उन्हें क्या मिलने वाला था, लेकिन इस से क्या उनके हाथ से छिन गया था, यह अब दुनिया देख रही थी.दुनिया भर के हजारों पर्यटकों ने संवेदना और समर्थन में उनके चित्रों पर हस्ताक्षर किये थे, और ह्रदय-विदारक सन्देश लिखे थे. पानी, जिसे जीवन-अमृत कहा जाता है, उनका जीवन लील गया था. लेकिन दोष पानी का नहीं, बल्कि उनके जोखिम-भरे खतरनाक इरादे का था. वे सब निस्संदेह अच्छे तैराक रहे होंगे, किसी ने लकड़ी का बॉक्स बना कर उसमें अपने को बंद करके ऊपर से बिजली की गति से बहते  पानी में छलांग लगाईं थी,कोई प्लास्टिक की नौका-नुमा पनडुब्बी बना कर उसमें बंद होकर  ऊपर से कूदा था, किसी ने पैराशूट की भांति अपने लिए मज़बूत पारदर्शक चैंबर बना कर, उसमें बैठकर जल-समाधि ली थी. लेकिन उन सभी ने सफलता नहीं, बल्कि सफलता के सपने को इतिहास में कैद किया था. इस जल-प्रपात को देखने आने वाले सभी पर्यटक यहाँ ज़रूर आते थे और इन लोगों के बारे में जान कर दांतों तले अंगुली दबा लेते थे.
   मैं वहां से बाहर निकला तो उन्हीं लोगों के बारे में सोच रहा था जिन्होंनें अमर होने के लिए जीवन की बाज़ी लगा दी .सड़क से थोड़ा आगे जाकर एक कॉर्नर पर विशाल इमारत थी, जिसमें जल-प्रपात देखने के लिए टिकट-घर था. यहीं पर पर्यटकों के लिए एक बड़ा-बाज़ार भी था, जहाँ आकर्षक चीज़ें बिक रही थीं. कई देशों के लज़ीज़ व्यंजन यहाँ उपलब्ध थे. छोटे से लेकर बड़े तक, सभी लोगों में एक अज़ब उत्साह था.यह बिल्डिंग जिस तिराहे पर थी, उस से एक सड़क आगे जाकर वाशिंगटन की ओर जाने वाले मुख्य मार्ग से मिलती थी, दूसरी तरफ दरियाई विशाल नहर के समानांतर जाता वह रास्ता था,जो 'वर्लपूल'के करीब से होकर बफलो विश्व-विद्यालय के मनोरम परिसर तक जाता था. तीसरा रास्ता फाल्स की ओर ले जाता था.
     यहाँ मेरा ध्यान एक ख़ास चीज़ की ओर गया, आम-तौर पर इतनी तेज़ी से बहते पानी में किसी भी मछली का अस्तित्व संभव नहीं होता, पर ध्यान से देखने पर केसरिया रंग की इमली जैसे आकार की वह मछली मुझे पानी की सतह पर यहाँ कई जगह दिखाई दी.चौड़े पाट की जिस नदी से बेशुमार पानी आकर झरने की शक्ल में गिर रहा था, वह कहीं से बहुत गहरी, और कहीं-कहीं से उथली थी. पानी की धारा की तीव्रता भी अलग-अलग जगह अलग-अलग तेवर लिए हुए थी. शायद यही पानी भूमिगत रास्ते से निकल कर दो विशाल देशों की सीमा बना रहा था. पानी के उस पार केनेडा की चित्ताकर्षक इमारतें दिखाई दे रही थीं.[जारी...]                

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर राजेश कुमारी जी ने याद किया प्यारी बिटिया को

राजेश कुमारी जी ने जब कल न्यारी-प्यारी बिटिया को याद किया, तो मुझे लगा कि कहीं किसी महकते बाग़ में कोई गुलाब खिल गया. कुछ देर उस गुलाब की महक और होली के रंगों में सारा नज़ारा अलौकिक लगता रहा लेकिन फिर किसी गुलाब के पौधे पर लगे असंख्य काँटों की तरह एक सवाल मेरी सोच को भी चुभने लगा. एक उदासी ने भीतर घर कर लिया. मैं अपने-आप से पूछने लगा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि हमने एक दिन बिटिया के नाम करके चुपके से बाक़ी तीन सौ चौंसठ दिन बेटे की नज़र कर दिए?
मुझे लगता है कि जब भी बेटे-बिटिया की बात आती है हम अपनी बरसों की सभ्यता-संस्कृति को भूल-बिसरा कर ज़माने से हज़ार बरस पीछे हो जाते हैं. जो लोग आज भी बेटे को इंसान और बिटिया को बोझ की गठरी मानते हैं उनके नसीब पर कहर टूटे. कीड़े-मकोड़ों को ऐसे लोगों के जीते-जी उनके बदन से महाभोज मिले.  

Tuesday, March 6, 2012

"सूखी धूप में भीगा रजतपट" बाद में, पहले माया की सत्ता और सत्ता की माया -होली मुबारक!

पांच राज्यों के चुनाव परिणाम भी आ गए. जो लोग इसे लोकसभा का मिनी चुनाव कह रहे थे, उन्हें अब मैक्सी चुनावों का भूत तंग करेगा. लेकिन केवल कुछ दिन. क्योंकि भूत-प्रेत से अब कोई नहीं डरता. वैसे भी अपने कहे से पलटी खाने का मंत्र सब को आता है.रंग बदलना भी सब जानते हैं. तो बहस-मुबाहिसे में क्या उलझना, पहले रंगों का त्यौहार ही मनाएं. होली आप सब को मुबारक!
रशिया में राष्ट्रपति पुतिन की कामयाबी भी दिलचस्प है. अटकलों का क्या, उनका तो काम ही है, बाज़ार को गर्म करना.
रायबरेली और अमेठी के लोगों को क्या हो गया? शायद होली के मूड और गफलत में भंग की तरंग का असर हो.
कल से कुछ दिन होली की छुट्टी 'कहना पड़ता है' को भी चाहिए. लौटते ही आपके लिए प्रस्तुत करूंगा अपना नया उपन्यास -" सूखी धूप में भीगा रजतपट"  



Sunday, March 4, 2012

हेलो गॉड !

एक मेरे पुराने नन्हे पाठक ने कहा है कि कई दिन से मैंने बच्चों के लिए कुछ नहीं लिखा. शायद पिछले दिनों एक लम्बी कहानी लिखने के चलते ऐसा हुआ हो. बच्चों की बात मैंने कभी नहीं टाली.
           "हेलो गॉड "
हेलो गॉड जी, सुनो ध्यान से, पप्पू बोल रहा हूँ मैं.
जल्दी से करदो वो पूरा, जो भी बोल रहा हूँ मैं.
फोन करो टीचर को मेरे, होमवर्क वो कभी न दें.
पापा को पाबंद करो अब, पॉकेट मनी बढ़ा कर दें.
कभी टिफिन में स्वीट- पेस्ट्री, पिज्जा-नूडल-केक धरें.
रोज़ परांठा रख देती हैं मम्मी, झेल रहा हूँ मैं.
लीडर लोगों से कहना अब, मांगें वो हमसे भी वोट.
बैठ करें चुपचाप देश की, सेवा, कभी न लूटें नोट! 

थोड़ी देर और ठहर [ भाग 12 ]

...जब मैंने देखा कि तांत्रिक ने मेरे मेल के जवाब में मुझे एक लंबा ख़त भेजा है.
     तांत्रिक ने लिखा था कि मैं सकुशल पहुँचने पर उसकी बधाई स्वीकार करूँ.उसका कहना था कि "विक्रमादित्य" एक कोडवर्ड था जो मुझे दिया गया है. इंटरनेट पर मुझे कई महीनों तक पढ़ने के बाद पर्यटन क्षेत्र की एक मल्टी-नेशनल कम्पनी  मुझसे कुछ लिखवाने के लिए लंबा करार करना चाहती थी. उसके द्वारा मेरे ब्लॉग और ट्विटर को लगातार ओब्ज़र्व किया गया था. जिस तरह किसी कैसेट या सीडी को खाली किया जाता है, ठीक उसी तरह यात्रा के दौरान मेरा मस्तिष्क-प्रक्षालन किया गया था. अर्थात बाहरी प्रभाव से मेरे विचार बदलने की कोशिश की गई थी. यह एक प्रकार का मानस आक्रमण था. कंपनी ने लम्बे समय तक मुझे प्रेक्षण पर, अर्थात अंडर-ओब्ज़र्वेशन रख कर मेरे मस्तिष्क की क्रियेटिविटी को स्कैन किया था और यह जांच की थी कि मैं कम्पनी द्वारा दिए गए विचारों को अपनी भाषा में किस तरह अपनी रचना में उतारूंगा. चूहे को करेंट से संचालित करने की बात कही गई. चूहा उनके द्वारा मुक्त किये जाते ही अपनी रिसीवर की भूमिका में की गयी शोध के परिणाम की चिप उन्हें सौंप कर एक सामान्य चूहे की  भांति भाग गया.मेरी इस जिज्ञासा का समाधान भी किया गया था कि चूहा बंद कांच की खिड़की से कैसे भागा ? मुझे बताया गया  कि वह एक मेडिकल ऑपरेशन था, जिसमें मेरे मस्तिष्क में सकारात्मकता को इंजेक्ट किया गया था, जिसके प्रभाव से मैं यह सोच सकूं, कि " कुछ भी संभव " है. मुझे दिया गया सिंहासन एक गिफ्ट-शोपीस था, लेकिन उसमें जड़े रत्नों पर उन देशों के नाम थे, जिनमें कम्पनी कार्यरत थी. बताया गया कि उन नामों को मैग्नीफाइंग ग्लास से देखा जा सकता है.
     तांत्रिक ने मेल में अंत में अपना नाम और परिचय भी दिया था. जिसे पढ़ कर मैं सन्न रह गया क्योंकि जिसे मैं कोई तांत्रिक समझ रहा था वह एक नामी पब्लिशिंग कम्पनी का अधिकारी था और विदेशी था.
     मेरे रोंगटे खड़े हो गए. नींद मुझसे कोसों दूर थी. आसपास कोई ऐसा भी नहीं था जिसे यह वाकया सुना कर मैं यह जान पाता कि यह सारा घटना-क्रम मेरी कोई सफलता थी या दुर्भाग्य.
     मैंने अब एक मित्र की भांति उसे फिर से मेल किया और उसके उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा. जवाब में केवल इतना लिखा हुआ आया ...वेट अ मोमेंट...कुछ देर इंतजार करके मैं सो गया.
     न जाने कितनी लम्बी और गहरी नींद रही मेरी. मैं अगले दिन दोपहर को लगभग तीन बजे उठा. मेरे मेज़बान ने मुझा जगा देख कर नमस्कार किया और बताया कि लम्बे सफ़र के बाद ऐसी ही नींद आती है.
     उठते ही मैंने अपना कंप्यूटर खोल कर मेल चैक किया. रात का वही वाक्यांश कई भाषाओँ में आ रहा था. मुझे अपने देश और अपनी भाषा की याद आयी. मैं अब अपनी भाषा को  वहां तलाशने लगा. आखिर एक जगह वह बारीक अक्षरों में लिखी मुझे  दिख ही गई. लिखा था - " थोड़ी देर और ठहर ". [ समाप्त ]
[ यह कहानी मेरी २९ और कहानियों सहित दिशा प्रकाशन, दिल्ली, [भारत] से प्रकाशित  "थोड़ी देर और ठहर " शीर्षक किताब में उपलब्ध है.]     

Saturday, March 3, 2012

थोड़ी देर और ठहर [ भाग 11 ]

     चूहे के जाते ही मैं कमरे में अकेला हो गया. मेरे मेज़बान, घर के दूसरे लोग बराबर वाले कमरे में सो रहे थे. चूहा जिस तरह खिड़की से निकल कर पाइप से उतरता हुआ नीचे गया, उस से मैं डर गया था.क्योंकि खिड़की का कांच बिलकुल अच्छी तरह बंद था. रास्ते भर इतनी बातें बनाने वाला वह तिलिस्मी चूहा जाते समय मुझसे अपनी मौलिक आवाज़ में "चूँ" भी बोल कर नहीं गया, इस बात से मैं अपमानित महसूस कर रहा था. न जाने वह चूहा कैसा था और अब कहाँ चला गया था ?
     बड़े-बड़े सफ़ेद फूलों की क्यारी के बीच, चाँद की उम्दा रौशनी में चूहे के बिला जाने के बाद मेरा ध्यान राजा विक्रमादित्य के रत्न-जड़ित सिंहासन पर गया. मैंने अपने अकेलेपन को सहने लायक शक्ति जुटाने की नीयत से विक्रमादित्य की आत्मा को आवाज़ दी. पर कोई जवाब नहीं आया. मैं कुछ और जोर से दोबारा चिल्लाया, पर वहां कोई नहीं था. सन्नाटा उसी तरह कायम रहा.
     मैं फिर से उस बंद कांच की खिड़की के पास चला आया, जिसके पार उम्दा उजास में पूरी प्रखरता से चन्द्रमा चमक रहा था. बड़े सफ़ेद फूलों वाली वह क्यारी किसी जादुई चित्र सी साफ़ दिख रही थी, जिसमें अभी कुछ देर पहले गुलाबी मुंह वाला सफ़ेद चूहा बंद कांच से गुज़र कर उस पार गया था. मैंने एक बार पूरा जोर लगा कर उस दिशा में विक्रमादित्य की आत्मा को फिर से पुकारा, यह सोच कर कि शायद वह चूहे के साथ वहां क्यारी में चली गई हो, पर निराशा हाथ लगी. कहीं से कोई उत्तर नहीं आया, उल्टे मुझे संकोच होने लगा कि यदि मेरे मेज़बान जाग गए तो आधी रात में मुझे इस तरह खिड़की से चिल्लाते देख कर न जाने क्या सोचेंगे?
     अब मुझे अचानक भारत में मिले उस तांत्रिक की याद आई जिसने यहाँ आते वक्त मुझे विक्रमादित्य का रत्न-जड़ित सिंहासन और गुलाबी मुंह वाला सफ़ेद चूहा दिया था. उस तांत्रिक ने मुझे अपना मोबाइल नंबर और ई-मेल पता भी दिया था. यद्यपि रात के पौने तीन बजे थे पर हड़बड़ी में मैंने उसका नंबर मिलाया. काफी देर तक कोशिश करने के बाद भी फोन नहीं मिला. मैंने हताश होकर अपना कंप्यूटर खोला और उसी समय उसे मेल लिखा.मैंने उस से पूछा कि उसने मुझे सफ़ेद चूहा और विक्रमादित्य का रत्न-जड़ित सिंहासन क्यों दिया था. क्या यह कोई जादुई भेंट थी या फिर कोई षड़यंत्र था , जिसमें मुझे भागीदार बनाया गया ? मैंने यह भी लिखा कि आते समय फ्लाइट का समय हो जाने के कारण हड़बड़ी में मैं कुछ पूछ नहीं सका था जिसका मुझे खेद है. मैंने तांत्रिक को यह भी लिख दिया कि रास्ते में चूहे ने किस तरह इंसानी आवाज़ में बातें कीं, और विक्रमादित्य की आत्मा सिंहासन के आसपास किस तरह मंडराती रही. मैं यह भी लिखना नहीं भूला कि अब वे दोनों ही न जाने कहाँ ओझल हो गए हैं, और मैं अचम्भे में हूँ कि यह सब क्या था ?
     मेल लिख कर मैं कंप्यूटर बंद करके सोना चाहता था. मेरा अचरज अब कुछ काबू में था किन्तु गहरी नींद लेने की जेट्लैग के कारण पनपी इच्छा अब थोड़ी मंद पड़ गई थी. मैंने गौर किया कि मेरे सोने के स्थान के पास रखे थर्मस में कॉफ़ी अब भी गर्म थी. मेरी चाय की तलब कॉफ़ी देखते ही जैसे जाग गई. एयरपोर्ट से आते समय रास्ते में मैं एक बार स्टार्बक्स की कॉफ़ी का स्वाद चख चुका था.कॉफ़ी पीते-पीते मेरी नींद पूरी तरह भाग चुकी थी. मेरा मन अब सोने को नहीं हो रहा था. इस नायाब देश में नींद से ज्यादा आकर्षक मुझे जागना लग रहा था. खिड़की में चाँद था, मगर वह चाँद अमेरिका में था. बादल भी कुछ अलग आभा दे रहे थे. 
     मैंने कंप्यूटर फिर से खोल लिया और अपना मेल चैक करने लगा. मेरे आश्चर्य का पारावार न रहा...[जारी ...]                 

Friday, March 2, 2012

थोड़ी देर और ठहर [ भाग 10 ]

     भोजन के बाद के प्रमाद भरे आलस्य में नीचे शुरू हुए सागर ने और इज़ाफ़ा किया. अब जहाज समुद्र पर से गुज़र रहा था. अब जो पानी दिखाई दे रहा था वह विलक्षण था. उसके एक छोर पर यूरोप और दूसरे पर अमेरिका था. दो  महा -द्वीपों के बीच की प्रशांत लहरें बड़ी दरियादिल थीं. प्रशांत महासागर की धीर-गंभीर व्यापकता यहाँ से भली प्रकार आंकी जा सकती थी.
     कई घंटों की सागर के साथ अठखेलियों के बाद जब जहाज न्यूयॉर्क विमानतल पर पहुंचा, दोपहर  के तीन बजे थे.हाथ में पहनी घड़ियों का कोई मोल नहीं था, वे सब अलग-अलग समय बता रही थीं. कैनेडी हवाई-अड्डे की विशाल-विराटता भी कैनेडी के व्यक्तित्व की तरह ही भव्य नज़र आती थी.
     विमानतल के अधिकारियों द्वारा पासपोर्ट पर ठप्पा लगाते ही यकीन हो गया कि यह वास्तव में अमेरिका की  धरती ही है.थोड़ी ही देर में मैं अपने सामान के साथ न्यूयॉर्क-विमानतल के गेट नंबर चार के बाहर खड़ा था. मैंने जेब पर हाथ लगाया तो यह सोच कर मुझे रोमांच हो आया कि चूहे ने भी मेरे साथ-साथ लम्बी यात्रा सकुशल पूरी करली थी. वह अब भी तरोताज़ा दिख रहा था.
     मेरे मेज़बान लोग मुझे लेने आये तो उन्होंने बताया कि हमें न्यूयॉर्क में ठहरने से पहले एक रात नेशुआ में रुकना था. मुझे यह कार्यक्रम बेहद राहत-भरा लगा.जब कोई डॉक्टर किसी की आँखों का ऑपरेशन करता है, तो उसके बाद आँखों की पट्टी एकदम से नहीं खोलता. पहले कम रौशनी में आँखें खुलवाई जाती हैं, ताकि आँखें चौंधिया न जाएँ. जब वे  प्रकाश की अभ्यस्त हो जाती हैं, तब आसानी से खोल ली जाती हैं. न्यूयॉर्क से पहले नेशुआ में रात गुज़ारना ठीक ऐसा ही था.
     नेशुआ एक शांत और सुन्दर क़स्बा था. रात को भोजन कर लेने के बाद नींद से पूरी तरह बोझिल आँखें लेकर जब मैं सोने के कमरे में आया तो मुझे अपनी जेब में बैठे चूहे से ईर्ष्या होने लगी, क्योंकि वह मुझे बिलकुल तरोताज़ा और खुश दिखाई दे रहा था. खुश मैं भी बहुत था, मगर मुझ पर लम्बी विमान-यात्रा के बाद का जेट्लैग हावी था. मैं सोना चाहता था.
     कपड़े बदल कर बिस्तर पर आने के बाद मुझे सोने में ज्यादा देर नहीं लगी. मैं फ़ौरन सो गया. लेकिन ये नींद विस्मित करने वाली थी. मुझे गज़ब का आराम मिल रहा था, किन्तु मैं अपने चारों ओर घट रही चीज़ों को साफ़ देख पा रहा था. शायद मेरी आँखें खुली थीं.
     खिड़की में कांच के पार एक सुन्दर चन्द्रमा था. नींद में भी यह विचार मेरे साथ था कि यह वही चन्द्रमा है जिसे बचपन से मैं भारत में भी देखता आया हूँ. लेकिन भारत में मैंने ऐसा चमत्कार कभी नहीं देखा था कि बंद कांच की खिड़की से कोई आर-पार जा सके. यह तो एक जादू ही था कि वह सफ़ेद चूहा कांच की उसी खिड़की से निकल कर चलता हुआ मेरे सामने ही नीचे बड़े-बड़े सफ़ेद फूलों की क्यारी में गुम हो गया.मैं सिहर गया. तो क्या यह चूहा यहीं का रहने वाला था ?यह फूलों की क्यारी में इस तरह चला गया, जैसे यही इसका घर हो. [जारी ...]        

Thursday, March 1, 2012

थोड़ी देर और ठहर [ भाग 9 ]

     चूहे की आवाज़ फिर आने लगी थी. वह वहां घूम रही विक्रमादित्य की आत्मा से कह रहा था - " देखा आपने, आज इन जनाब के मुंह में अटका निवाला भी तब निकला जब एक केनेडियन महिला ने इनकी मदद की.अब तक तो ये केवल भारतीय मेजबानी, ममता और सहयोग भावना के ही कायल रहे हैं. इन्होंने बहत्तर बार वसुधैवकुटुंबकम  की ठुमरी गाई है लेकिन ग्लोबलाईजेशन को अब तक कभी भाव नहीं दिया. ये जानते ही नहीं, कि इन दोनों की फितरत एक ही है. उलटे ये तो भारतीय सत्तू को दुनिया का सबसे बेहतरीन फास्ट-फ़ूड और लस्सी को दुनिया का सबसे अनूठा कोला बताते रहे हैं. तमाम पेप्सी और कोक इन्हें भारतीय शर्बतों के आगे फीके लगते रहे हैं."
     मुझे थोड़ी सी बातचीत के बाद पता चला कि मेरी मदद करने वाली केनेडियन महिला बारह वर्ष पहले एक मुकद्दमे में गवाह की हैसियत से एक बार भारत भी जा चुकी है. केनेडा में उसके पड़ौस में रह रहा एक सिख परिवार उसे अपने किसी संपत्ति विवाद के मुकद्दमे में सहायता के लिए भारत ले गया था, जहाँ वह जालंधर और पानीपत में कुछ दिन रही थी. वह वहां भारतीयों की मेहमान-नवाज़ी से काफी प्रभावित रही थी. शायद इसी वज़ह से वह अतिरिक्त तत्परता से मेरी मदद करने के लिए तुरंत अपनी सीट छोड़ कर चली आई थी. मैं चाहता था कि चूहा अब जेब से बाहर आकर महिला की ये बात सुने. मगर वह तो शायद जेब में अधलेटा होकर ऊंघ रहा था.
     बगदाद शहर नीचे अभी-अभी गुज़र कर चुका था. शहर के कुछ बाहरी हिस्से अब तक पीछे की ओर दौड़ते दिखाई दे रहे थे. मैंने देखा, बगदाद की धरती गहरे सुनहरे रंग की थी, जिसका तात्पर्य यह था कि वहां हरियाली कम थी.
     मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब मैंने देखा कि चूहा न जाने कहाँ से एक छोटा चश्मा उठा लाया और अब उसे आँखों पर लगा कर  अखबार के कागज़ का टुकड़ा हाथ में लेकर ज़ोर-ज़ोर से पढ़ रहा था.उसकी आवाज़ साफ सुनाई दे रही थी- 'वंस अपॉन अ टाइम देयर लिव्ड इन बगदाद अ वेरी रिच ओल्ड मर्चेंट विद हिज़  वाइफ एंड अ सन.द ओनली सन,अबू हसन बाई नेम, वाज़ गुड-लुकिंग, इंटेलिजेंट एंड हेड  अ ग्रेट सेन्स ऑफ़ फ़न...'
     शायद विक्रमादित्य की आत्मा कहीं इधर-उधर ओझल हो गई थी, इसीलिए चूहा अकेले में अख़बार से दिल बहला रहा था. आत्मा के आते ही कमबख्त चिड़िया की सी नींद से जाग कर फिर उस से बतियाने लगा- "ये जनाब अब तक बगदाद को चोरों का घर और भारत को साहूकारों का अड्डा समझते रहे हैं." मैंने उसे चुप करने के लिए अख़बार को मक्खी उड़ाने के बहाने अपने सीने पर ज़ोर से मारा. मैं अच्छी तरह जनता था कि वहां कोई मक्खी नहीं थी.
    कुछ घंटों बाद जब जहाज एम्स्तर्दम के समीप से गुज़र रहा था मौसम में व्यापक तब्दीली होने लगी. लन्दन के जिस मौसम की कल्पना अक्सर होती है, वही पनीली ठण्ड वातावरण में घुलने लगी. विमान में अब दोपहर का खाना परोसा जा रहा था. चारों ओर से चहकने के स्वर गूँज रहे थे. [ जारी...]       

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

Lokpriy ...