Wednesday, February 15, 2012

लन्दन की वो सुबह आज भारत की चौबीसों घंटे चलने वाली बारहमासी है

गर्मी के दिन थे. एक नन्ही चींटी लगातार पसीना बहाते हुए अपने बिल में अपने लिए भोजन के कण कहीं से ला-ला कर जमा कर रही थी. एक पौधे की छाँव में आराम फरमा रहा टिड्डा उसे देख रहा था. टिड्डे ने चींटी को इतनी मेहनत करते देखा तो उस से रहा नहीं गया.वह चींटी से बोला- तुम सुबह से दौड़-दौड़ कर अपने बिल में भोजन जमा कर रही हो, इस से क्या फायदा? मुझे देखो, मैं आराम से बैठा गीत गा रहा हूँ. चींटी कुछ न बोली.
दिन बीते. मौसम बदल गया. कड़ाके की ठण्ड पड़ने लगी. सब कुछ बर्फ से ढक गया.घर से निकलने तक का मौसम नहीं रहा. घर में बैठे टिड्डे को भूख सताने लगी. चींटी अब घर में ही थी, आराम से घर में रखा अन्न खाती और मौसम का आनंद लेती.
टिड्डा चींटी के पास पहुंचा, और याचना के स्वर में बोला- मैंने तीन दिन से कुछ नहीं खाया है, मुझे खाने को देदो. चींटी बोली- जब मैं खाना इकठ्ठा कर रही थी, तब तुम आराम से बैठे गीत गा रहे थे, तो अब आराम से जाकर नाचो.
ये गाथा कभी इंग्लैण्ड में लिखी गई थी.
अब ये भारत में अपनाली गई है, सिर्फ थोड़े से परिवर्तन के साथ. मौसम बदलने पर टिड्डे ने चींटी का खाना छीन लिया और चींटी इंतजार में है कि कब बर्फ पिघले और वह फिर भोजन की तलाश में निकले.     

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