Monday, November 21, 2011

चीन के प्रति मौजूदा आशंकाएं १९६२ के युद्ध की स्वर्णजयंती से तो नहीं जुड़ीं?

१९६२ से पहले तत्कालीन चीनी प्रधान मंत्री चाऊ एन लाइ भारत की यात्रा पर आये थे. उनका स्वागत बहुत गर्मजोशी से हुआ. उन्हीं दिनों "हिंदी-चीनी भाई-भाई" का नारा बुलंद हुआ और बेहद लोकप्रिय हुआ. और कुछ  साल बाद समय ने ऐसा पलटा खाया कि भारत को चीन के साथ युद्ध की विभीषिका झेलनी पड़ी. इस युद्ध के दौरान चंद ऐसे विवाद उभरे,जिनका समाधान आजतक नहीं हो पाया है.
लेकिन भारत-चीन संबंधों में इसके बावजूद कोई बड़ी दरार नहीं पड़ी. दुनिया के ये  जनशक्ति में पहले और दूसरे फलते-फूलते देश अपनी अपनी रफ़्तार से प्रगति करते रहे.
इस वर्ष के बीतते-बीतते भारत और चीन अपने बीच हुए युद्ध की अर्धशती मनाते हुए उन दिनों को याद कर रहे होंगे. शायद यही कारण है कि कुछ लोगों ने संबंधों के बीच की खाई को फैलाना शुरू कर दिया है. चीन का तेज़ी से बढ़ता वर्चस्व और भारत का बढ़ती शक्ति के रूप में उदय इस अघोषित प्रतिद्वंदिता को और हवा दे रहा है. यदि वास्तव में इन दोनों के मध्य तनाव बढ़ा, तो कुछ बातें और लोगों का ध्यान खीचेंगी-
-अमेरिका के बाद नंबर दो की जगह रूस छोड़ चुका है, और यह जगह  फ़िलहाल ख़ाली है.
-चीन की महत्वाकांक्षा को यह बात और बल दे रही है कि भारत के साथ पाकिस्तान के रिश्ते न कभी सुधरे और न कभी सुधरेंगे.
-यूरोप के चंद संपन्न देश और जापान जैसे एशियाई देश आर्थिक उथल-पुथल के दौर से गुज़र रहे हैं.
-भारत की आन्तरिक स्थिति फ़िलहाल "हिंदी-हिंदी भाई-भाई" की भी नहीं है.यहाँ देश की सीमा के भीतर ही अलग-अलग मानसिकता के सुलतान और सल्तनतें पनप रहे हैं.
यह सभी बातें चीन के पक्ष में जाती हैं.      

2 comments:

  1. सटीक विश्लेषण किया है ...

    मेरे ब्लॉग पर आने के लिए आभार

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  2. aapke blog par aane ke baad main aabhaar aapka hi manta hoon, itni nai shaili men likhi ja rahi kavitaon se ab tak vanchit raha.

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