Sunday, October 9, 2011

इनाम, राजा और दरबारी, एक साथ नाव में

एक बार एक राजा ने अपने दरबारियों के बीच एलान किया कि उसके राज्य में मूर्ख से मूर्ख आदमी का भी पूरा सम्मान हो. दरबारियों के पास एक ही विकल्प था- जो आज्ञा. 
अब राजा दिन-रात कभी भी वेश बदल कर घूमता, और देखता कि उसकी आज्ञा का कितना पालन हो रहा है. 
एक दोपहर राजा ने देखा कि उसके चार दरबारी एक चरवाहे को भैंस पर बैठा कर, उसके सामने बिगुल बजाते हुए आ रहे हैं.वे आपस में बात कर रहे थे कि यह मूर्ख अपने पशुओं को पेड़ से बाँध कर खुद उनका चारा खा रहा था.  राजा एक फल बेचने वाले के रूप में वेश बदले हुए था. जब वह चरवाहे के काफिले के पास से गुज़रा तो तो उसने दरबारियों से गुज़ारिश की- सुबह से मेरा एक भी फल नहीं बिका है, मेरे बच्चे भूखे रह जायेंगे, तुम मेरे सारे फल लेलो, चाहे मुझे इनका एक भी पैसा मत देना. एक पल को दरबारी चकराए, फिर यह भांप कर, कि यह फल वाला तो चरवाहे से भी ज्यादा मूर्ख है, उन्होंने चरवाहे को तो छोड़ दिया, और फल वाले, जो कि राजा स्वयं था, को तिलक करके उसके सामने बिगुल बजाते हुए उसका जुलूस लेकर जाने लगे. 
वे इस तरह कुछ ही दूर चले होंगे, कि सामने से राजा के कुछ और दरबारी आते दिखाई दिए. संयोग से उन्होंने राजा को पहचान लिया. पहचानते ही उन्होंने तुरंत राजा को सलाम किया और साथ लाई हुई शाही-बग्घी में राजा को बैठा लिया.अब वह राजा  अपने पूरे लाव-लश्कर के साथ महल की ओर चल पड़ा.
अगली सुबह जब राजा दरबार में आया, तो सभी दरबारी सांस रोके चुपचाप बैठे हुए थे कि देखें,राजा किसको दंड देता है और किसको इनाम. [कहानी का अगला भाग बाद में]  

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