Thursday, March 10, 2011

आन्दोलन का श्रम सीखने में लगे

अमेरिका भौगोलिक रूप से जितना विशाल है, उतना ही विशाल वह हर तरह से एक देश के रूप में भी है। वहां सैंकड़ों जातियों,धर्मों, विचारों के लोगों का आना-जाना भी होता रहा है। लेकिन वहां की वर्तमान भाषा क्या है? अमेरिकी अंग्रेजी। शासन के कामकाज में इसके सिवा कोई और भाषा नहीं है, चाहे दर्ज़नों भाषाओँ में अनुवाद की बेहतरीन सुविधाएँ मौजूद हों।वहां का हर व्यक्ति तो इसके लिए तैयार रहता ही है, बाहर से आने वाले भी, चाहे वह जिस देश से भी आये हों, इसके लिए तैयार होकर ही आते हैं। यही कारण है कि देश एक सुर से बोल पाता है।
वहां ऐसी भाषिक विविधता नहीं है कि शासकीय कामकाज में भी देश के एक राज्य का व्यक्ति माता को मां बोले,दूसरे राज्य का माई बोले,तीसरे राज्य का चाई बोले,चौथे का आई बोले, पांचवे का अम्मा बोले ...और इसकी कहीं कोई सीमा नहीं हो।इतना ही नहीं, बल्कि माँ बोलने वाला बरसों बाद इस बात के लिए आन्दोलन पर उतर आये कि उसे महतारी बोलने की अनुमति क्यों नहीं दी जा रही? ऐसे में देश की भाषिक स्वाधीनता की बात करना तो बेमानी है ही, देश को एक सूत्र में बांधे रखना और भी कठिन है।
अमेरिका और दूसरे विकसित देशों ने इस का हल बेहद संजीदगी से निकाल रखा है। वहां यह सवाल कभी नहीं आता कि यह भी कोई समस्या है। एक भाषा में एक ही चीज़ के लिए कई शब्दों का होना, साहित्यिक रूप से उसकी सम्रद्धता का द्योतक हो सकता है, पर उसमे से अपनी जानकारी वाले शब्द के लिए ही लड़ मरना सामूहिक खोखलेपन के सिवा कुछ और नहीं हो सकता।इससे न भाषाएँ सम्रद्ध होती हैं न समाज। विकल्प यही है कि देश की एक ज़बान हो, और उसे न जानने वाले - सीखें।

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